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अतिमहात्वाकांक्षा के शिकार ये राजनीतिज्ञ, न खुदा मिला न विसाले सनम!

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

अति उत्साह में कई बार आप जो सोचते हैं वैसा होता नहीं है। अब देखिए न केजरीवाल ने किस तरह 49 दिनों में दिल्ली की गद्दी को छोड़ दिया और कूद पड़े सीधे प्रधानमंत्री मोदी को टक्कर देने और उन्हें सलाह देने वाले ऐसे लोग शामिल थे जो उन्हें एक बार में ही निपटा देना चाहते थे। एक आंदोलन की मौत किस तरह से होती है हम सभी ने देखा। एक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा किस तरह से किसी आंदोलन को ले डूबता है, अब कहने की शायद ही जरूरत पड़े।

दूसरी तरफ, बिहार में अच्छी-खासी लोकप्रिय सरकार चला रहे नीतीश कुमार को उनके सिपहसलाहकारों ने पीएम बनने का ख्वाब ऐसे दिखाया कि उन्होंने 17 साल पुराना बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन तोड़ दिया और एक पुराने नेता जीतन राम मांझी को बिहार की गद्दी पर ये सोचकर बिठाया कि जब चाहेंगे उसे हटा देंगे या वो पूर्व पीएम मनमोहन सिंह (सोनियां गांधी के अंधभक्त रबर स्टांप) की तरह मेरे हुक्म को मानेगा, हुआ ठीक उल्टा, गद्दी पर बैठने के कुछ समय तक तो सब ठीक ठाक था, लेकिन वक्त को पहचानते हुए मांझी ने भी करवट बदल ली। अब इस चिड़िया को पंख आ गए हैं और वो राजनीति के आकाश में उड़ने को बेताब है। बेचारे नीतीश लोकसभा चुनाव में तो बुरी तरह पीटे ही अब वो लोग भी आंखें दिखाने लगे हैं जो कभी उनके सामने बैठने की हिम्मत नहीं दिखा पाते थे। जिस जंगलराज को हटाने के लिए उन्होंने बिहार की जनता से वोट मांगा था उसी जंगलराज के पुरोधा लालू प्रसाद यादव की गोदी में फिर से जा बैठे। न खुदा मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के हम। अब देखिए न महाविलय के दिन उन्हें बुखार आ जाता है और जिस व्यक्ति को उन्होंने मुख्यमंत्री की गद्दी पर बिठाया था वो उनसे मिलने तक नहीं जाता है, इसे हम क्या समझें।

एक तरफ अरविंद केजरीवाल दिल्ली की जनता से ये वादे कर रहे हैं कि अब हम पांच साल से पहले गद्दी नहीं छोड़ेंगे तो दूसरी तरफ नीतीश कुमार अपने वोट बैंक को एकत्र करने में लगे हैं, लेकिन उनके वोट बैंक में तो जीतन राम मांझी ने ऐसा छेद किया है कि वो अब किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे। महादलित वोट बैंक पर कब्जा तो किया ही वर्षों पुराने दोस्त नरेंद्र सिंह और बिहार जेडीयू अध्यक्ष वृषण पटेल को भी अपने साथ कर लिया है। अब अगर नीतीश कुमार ज्यादा ताकत दिखाएंगे तो मांझी किसी भी समय बीजेपी की गोद में बैठ जाएंगे और फिर नीतीश को मिलेगा बाबाजी का ठुल्लू।।

हालांकि, दिल्ली की जनता ने तो बहुत हद तक अरविंद केजरीवाल को माफ कर दिया है। जैसा कि सर्वेक्षणों में बताया जा रहा है कि दिल्ली में सीएम के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार के तौर पर केजरीवाल ही हैं, लेकिन अब देखने वाली बात होगी कि 7 फरवरी को जनता अपना मत किसे देती है और आगामी 10 फरवरी को गिनती में रही-सही कसर भी पूरी हो जाएगी। अब देखना है कि राजनीति का ऊंट किस करवट बदलता है।

इधर लालू प्रसाद यादव पूरे जोर-शोर से जनता दल परिवार के एकीकरण में लगे हुए हैं। जबसे मुलायम के भाई के सांसद पोते से उनकी सबसे छोटी बिटिया की शादी तय हुई तभी से उनके चेहरे पर एक नई खुशी देखने को मिल रही थी। उधर मुलायम ने भी वक्त की नजाकत को पहचानते हुए पुराने जख्मों को भूलाकर लालू प्रसाद से हाथ मिलाने में भी समझदारी दिखाई। गौरतलब है कि लालू प्रसाद ने ही मुलायम सिंह यादव के पीएम बनने की राह में रोड़े अटकाए थे। मोदी की आंधी में मुलायम परिवार को कुनबा तो संसद में पहुंच गया, लेकिन पूरे यूपी में सत्ता के रहते हुए भी वे विजय रथ को रोकने में नाकाम रहे। इधर बिहार में लालू यादव के कभी सबसे करीबी रहे राम कृपाल यादव ने उनका साथ छोड़कर ऐन चुनाव के वक्त में भाजपा का दामन थाम लिया था और संसद में पहुंचने में न सिर्फ कामयाब रहे बल्कि उन्होंने लालू की बिटिया को जो कभी उन्हें चाचा कहकर बुलाती थी, सीधे मुकाबले में पटखनी दे दी। अब इस जख्म को लालू किसके सामने कहें, सो वक्त की नजाकत को वो पहचान चुके हैं और चाहते हैं कि नीतीश कुमार के साथ पार्टी का एका हो जाए तो आने वाले बिहार विधानसभा के चुनाव में कुछ इज्जत रह जाए वरना वो भी चली जाएगी, जैसा कि झारखंड में जनता ने अंगूठा दिखा दिया है।

वैसे इस हालत के लिए लालू प्रसाद औऱ नीतीश कुमार कम जिम्मेदार नहीं है। जब लालू प्रसाद सत्ता में थे तो अपने सामने किसी को समझते नहीं थे और जैसे चाहा बिहार पर राज किया, लेकिन चारा घोटाला में बेचारे ऐसे फंसे कि एक तो अगला चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गए, दूसरे बिहार में पार्टी की हालत खस्ता हो गई। नीतीश कुमार ने भी एनडीए शासनकाल में खूब मजे किए औऱ रेल मंत्री पद पर रहते हुए यहां भाजपा की सहायता से जमीन मजबूत की।

इतना ही नहीं बीजेपी से सांप्रदायिकता के नाम पर 17 वर्षों पुराना साथ तोड़ने वाले यही नीतीश कुमार एनडीए शासनकाल में गोधरा कांड के बाद रेल मंत्री बने थे और इसके बाद वे न सिर्फ गुजरात गए थे बल्कि नरेंद्र मोदी के शासन की प्रशंसा भी की थी और देखिए वक्त कैसे बदलता है कि नरेंद्र मोदी के पीएम कैंडिडेट की घोषणा होने के बाद जब बिहार का दौरा हुआ तो उन्होंने राजकीय सम्मान में दिया जाने वाला भोज तक रद्द कर दिया था।

सत्ता में रहते एक तरफ वे अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के साथ पाकिस्तान जाते हैं तो दूसरी तरफ सिमी के आतंकियों के पकड़े जाने पर पूछताछ करना तक गंवारा नहीं समझते हैं। इसे वोटबैंक की राजनीति न कहें तो क्या कहें हम। जब देश की सुरक्षा एजेंसियां आतंकियों को पकड़ती थी तो सबसे ज्यादा हल्ला नीतीश कुमार मचाते थे। देश की सुरक्षा के साथ समझौता करने वाले ये राजनीतिज्ञ किस तरह की राजनीति में संलिप्त हैं, ये देशवासी अच्छी तरह से समझते हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें सिर्फ किसी व्यक्ति का विरोध करना है और वे इसके लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार होते हैं। अगर समय रहते इस तरह की राजनीति पर रोक नहीं लगाई गई तो देश का बड़ा नुकसान होगा।।

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