Menu
blogid : 10952 postid : 674166

शुद्ध भ्रष्टाचार की गंगा बनाम जांच अभी जारी है…

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
  • 168 Posts
  • 108 Comments

हरेश कुमार

हमारे देश के नेताओं की पांचों हाथ घी में और सर कड़ाही में कहा जाता रहा है और इसके पीछे उनके खुद के कारनामें का हाथ है. जब हमारा देश आजाद हुआ था तो आजादी के आंदोलन में तपे-तपाये नेताओं के हाथ में देश की तकदीर थी, लेकिन उसी समय कुछ ऐसे नेता भी राजनीतिक प्रक्रिया से जुड़ते चले गए जिनका एकमात्र उद्देश्य अपने राजनीतिक और पारिवारिक रसूख को कायम करना था और वे इसकी मदद से इलाके के कमजोर लोगों पर अपनी धौंस जमाया करते थे. बेकारी कराना इनमें से एक था. जमींदारी प्रथा का अभी पूरी तरह से उन्मूलन नहीं हुआ था. ये लोग गरीबों को इंसान मानने से ही इनकार करते थे और अमानवीय व्यवहार करना तो इनकी आदतों में शुमार था. कुछ लोग इसे सामंती प्रथा का नाम देते थे तो कोई कुछ और लेकिन यह मानव को उसके अधिकारों से वंचित करने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था.loktantra-p-14-2013

लेकिन धीरे-धीरे पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक हितों को देखते हुए जमींदारी प्रथा और प्रिवीपर्स को बंद कर दिया जो अंग्रेजी शासन काल में देश में छोटे-बड़े राजाओं को सरकार की तरफ से मिला करता था, फिर बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी कर दिया. कुछ राजाओँ ने इसके विरोध में राजनीतिक दल का गठन किया जिसे शुरुआत में थोड़ी-बहुत सफलता मिली, लेकिन बाद में ये राष्ट्रीय दलों में शामिल हो गए और कुछ तो आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं. इसमें भाजपा की तरफ से राजस्थान की मुख्यमंत्री, वसुंधरा राजे सिंधिया और उन्हीं के परिवार के ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में दांव खेला था लेकिन वहां सफलता नहीं मिली. ये तो सिर्फ एक उदाहरण है ऐसे कितने सांसद और विधायक हैं जो पहले राजघरानों से संबंधित रहे हैं.

अब आते हैं. हाल के दिनों के भ्रष्टाचार पर जिसे लेकर पूरे देश में गुस्सा है और इसमें एक-आध अपवादों को छोड़कर हर दल और उसके नेता शामिल हैं. सबसे पहले चर्चित बोफोर्स तोप घोटाला, जिसने राजीव गांधी की सरकार को सत्ता से हटा दिया, जो नामुमकिन लग रहा था. क्योंकि इससे पहले किसी भी दल को इतना अधिक जनसमर्थन नहीं मिला था और इसके पीछे, इंदिरा गांधी का सिख कट्टरपंथियों के द्वारा हत्या किया जाना रहा. गांव-देहात में तो लोग राजीव गांधी की साफ-सुथरी छवि को देखते टेलीविजन पर उनकी पूजा करने लगे थे तो वोट करते समय लोग राजीव गांधी को अनाथ कहते थे और उनके पक्ष में जबरदस्त सहानुभूति लहर थी. स्थानीय भाषा में महिलायें कहा करती थी कि टुगरा है, एकरा कोनो ना है. एगो माई रहलई ह ओकरो सब मिलके मार दीहलई. यह 1984 का समय था और में चौथी क्लास में पढ़ता था और मुझे ये शब्द पूरी तरह याद है. इसका सीधा अर्थ है – कि यह अकेला है और इस व्यक्ति का कोई नहीं है, हम सबको इसका समर्थन करना चाहिए और राजनीति के नौसिखुए राजीव गांधी ने ऐतिहासिक सफलता पाते हुए एक नई राजनीति की शुरुआत की. लेकिन उनकी राजनीतिक अकुशलता और चारों-तरफ चापलूसों की फौज ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा. क्वात्रोच्चि ने बोफोर्स घोटाले में गांधी परिवार से अपने संबंधों का जमकर लाभ लिया. और इसके कारण राजीव गांधी की सत्ता चली गई. यहां तक कि 1991 में चुनाव प्रचार के दौरान ही उन्हें अपने जान से भी हाथ धोना पड़ा. बोफोर्स घोटाला सीबीआई जांच के नाम पर 68 करोड़ रुपये की जांच के लिए 250 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर दिए गए और अंतत: सीबीआई की कमजोर दलीलों और सबकी मिलीभगत के कारण इस केस को बंद करना पड़ा. इससे पहले अपनी राजनीतिक अकुशलता के कारण ही भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदार वारेन एंडरसन को रातों-रात देश से भगा दिया और वो अपने देश अमेरिका में सुरक्षित पहुंच गया. आजतक भोपाल वासियों को न्याय नहीं मिला है और वे सब न्याय के लिए दर-दर भटक रहे हैं. इश घटना के शिकार होकर लाखों-लोग कालकवलित हो गए तो आज भी विकलांग पैदा हो रहे हैं. पूरा वातावऱण दूषित हो चुका है, मिथाइल आइसोसायनायट के रासायनिक रिसाव से.

बोफोर्स घोटाले के नाम पर सत्ता में आये वीपी सिंह ने इसकी जांच की गंभीरता को लेकर कभी गंभीर तौर पर प्रयास नहीं किया. जबकि वे जब चुनावी सभाओं में जाते थे तो कहा करते थे कि बोफोर्स सौदे में लाभ पाने वालों की सूची उनकी जेब में है. लेकिन मरने के बाद भी यह सूची कभी सामने नहीं आ सका. देश को मालूम नहीं हो सका कि कौन-कौन से लोग इस खेल के पीछे थे और राजीव गांधी मरते वक्त तक इस दाग से धुल नहीं पाये थे. आज भी गांधी परिवार पर क्वात्रोच्चि को संरक्षण देने और घूस की रकम बैंक से निकालने में पूरी मदद करने का आरोप है. खैर, इसकी लंबी कहानी है.

यहां तक कि वीपी सिंह ने राजीव गांधी को फंसाने के लिए एक गुप्त खाता भी खोला था, जिसके कारण काफी बदनामी हुई. जब वीपी सिंह के हाथ से सत्ता खिसकने लगी तो उन्होंने आजादी के समय दबे पडे आरक्षण के झुनझुने को झाड़-फोंछकर बाहर निकाला और इसे लागू करने का वादा किया. इसके विरोध में भारतीय जता पार्टी और उसके समर्थकों ने कमंडल का नारा दिया. देश में जगह-जगह आंदोलन होने लगे और राजनीतिक दलों ने इस पर अपनी रोटियां जमकर सेकीं. इंसानियत को इससे जितना नुकसान हुआ उससे इन नेताओं को क्या लेना-देना था. उन्हें तो बस अपनी सत्ता से मतलब था और इसका परिणाम आज तक देश भुगत रहा है. दंगों की आग में झुलसना देश की तो जैसे नियति रह गई है.

आज विभिन्न राज्यों में जो दल सत्ता या विपक्ष में हैं वे सब प्राय: 1990 के दशक की ही उपज हैं. चाहे यूपी में मुलायम सिंह यादव का दल समाजवादी पार्टी हो या बहुजन समाजवादी पार्टी या बिहार में लालू प्रसाद यादव का दल राष्ट्रीय जनता दल या रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी या नीतीश कुमार की पहले समता पार्टी और फिर जनता दल यूनाइटेड इन सबके गठन के मूल में 1989 का समय रहा है. गठबंधन के दौर में इन नेताओं का प्रादुर्भाव हुआ और आज चाहे मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह हों या किसी अन्य प्रदेश में सब जगह ऐसे लोगों को सत्ता में शामिल होने का मौका मिला जो अभी तक दूसरी पंक्ति में रहा करते थे. अनेक विपरीत परिस्थितियों के बावजूद पिछड़े वर्ग के नेताओं का प्रादुर्भाव इस काल की सबसे बड़ी विशेषता है.

वैसे जिस तरह से आरक्षण का इस्तेमाल राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को बनाए रखने के लिए कर रहे हैं. उससे समाज में इसके खिलाफ जबरदस्त गुस्सा पनप रहा है. आरक्षण का प्रावधान कमजोर तबकों के लिए किया गया है लेकिन इसका लाभ राजनीतिक और सामाजिक तौर पर मजबूत लोग ही उठा रहे हैं. जिनके लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया वो अभी तक समाज में हासिए पर ही हैं. सरकार को चाहिए कि आरक्षण के स्थान पर सभी को जिंदगी के लिए जरूरी मूलभूत सुविधायें और उच्च स्तर की शिक्षा, चिकित्सा मुहैया कराये जिससे आरक्षण का प्रावधान धीरे-धीरे ही सही खत्म हो जाये. इसे कई बार प्रतिभाशाली बच्चों को मौका नहीं मिल पा रहा है और वे कुंठा का शिकार हो रहे हैं. समाज में एक नया वर्ग पैदा हो रहा है जिसे किसी भी तरह का आरक्षण मंजूर नहीं है और उसकी इच्छा है कि सरकार चाहे तो कमजोर वर्ग (आर्थिक स्थिति के अनुसार) के लोगों को जिसमें हर जाति-धर्म के लोग शामिल हैं, उचित शिक्षा दे और इसके लिए सारे प्रावधान करे और सभी वर्ग के लोगों को बराबर प्रतियोगिता करने का मौका मिले. अगर कोई कमजोर आर्थिक स्थिति का है तो उसे उचित ट्यूशन दिया जाये चाहे अन्य प्रावधान किया जाये जिससे सब बराबरी का मौका पा सके. खैर, राजनीतिक दल ऐसा कभी नहीं चाहेंगे जिससे उनके वोट बैंक पर असर पड़े. अब जनता के ही हाथों में है कि वो चाहती क्या है?

हाल के वर्षों में मुंबई में सेना की जमीन पर बना आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला जिसमें राजनीतिज्ञों और बड़े सैन्य अधिकारियों का हाथ था, को राज्य सरकार ने जांच रिपोर्ट को खारिज कर दिया. गौरतलब है कि मुंबई के कोलाबा क्षेत्र में कारगिल शहीदों की विधवाओं के नाम पर बनी आदर्श सोसायटी में हुई अनियमितताओं के बाद जनवरी 2011 में मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने दो सदस्यीय जांच आयोग का गठन किया था. जांच रिपोर्ट के अनुसार, इस घोटाले में तीन मुख्यमंत्रियों के नाम की चर्चा है. अशोक चव्हाण को तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की गद्दी से इसी घोटाला के कारण अपने पद से हटना पड़ा था. इसके अलावा, लगभग एक दर्जन से अधिक वरिष्ठ नौकरशाह और सैन्य अधिकारी इस खेल में शामिल हैं.

जब देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों सैनिकों के परिवारजनों के साथ हमारे नेता और सैन्य अधिकारी ऐसा कर सकते हैं तो वे दूसरों के साथ किस तरह व्यवहार करते होंगे पता नहीं. हम सबने देखा कि मुंबई में हमले के दौरान हमारे सिपाहियों के पास सुरक्षा के लिए जरूरत के सामान भी नहीं थे, जिसके कारण हमारे कई जांबाज सैनिकों और पुलिस कर्मचारियों को असमय मौत को गले लगाना पड़ा. ये राजनीतिज्ञों का दोहरा चरित्र ही है कि एक तरफ तो वे देश को संबोधित करते हुए तरह-तरह के वादे करते हैं लेकिन दूसरी तरफ देश की सुरक्षा में तैनात सैनिकों के लिए उचित सुविधा दिलाने में उनकी कोई रुचि नहीं होती. आये दिन रिपोर्ट मिलती है कि रक्षा सौदे में इतने करोड़ का घोटाला हुआ तो इन मंत्रियों की संलिप्पता थी तो कभी पूर्व वायुसेनाध्यक्ष का नाम सामने आता है. हमारे पूर्व सेनाध्यक्ष वीके सिंह पर तो जन्मतिथि में हेर-फेर का मामला है और यह कोई छोटी-मोटी गलती नहीं है. यह भ्रष्ट व्यवस्था की बड़ी कहानी कह देता है.

सेना की जमीन पर छह मंजिल की प्रस्तावित मंजिल किस तरह से 31 मंजिल तक बन गई. एक सामान्य सा दिमाग वाला नागरिक भी समझ सकता है कि इस देश में बगैर राजनीतिज्ञों के यह सब संभव नहीं था और जब मामला करोड़ों की प्रॉपर्टी का हो तो नेता और सैन्य अधिकारी कहां पीछे रहने वाले थे. खैर, लीपापोती की कार्यवायी जारी है.

चाहे मायावती के शासन काल में यूपी में मूर्ति निर्माण में अरबों का घोटाला हो या बिहार का बहुचर्चित चारा घोटाला जिसमें शामिल नेताओं के दस्तावेजों में हेरा-फेर करने के बावजूद पटना उच्च न्यायालय और फिर रांची उच्च न्यायालय और सीबीआई के जांच अधिकारी उपेन विश्वास के कर्मठ प्रयासों के कारण 17 सालों बाद लालू प्रसाद यादव को पांच साल की सजा हो सकी. इस बीच उपेन विश्वास को हर तरह की यातना दी गई. लेकिन वे अपने कर्मपथ से कभी नहीं हटे. देश को ऐसे लोगों पर नाज है. कभी-कभी लगता है कि हमारा देश उपेन विश्वास, अशोक खेमका, दुर्गाशक्ति नागपाल जैसे बहादुर और ईमानदार अधिकारियों की वजह से ही चल रहा है वरना हमारे नेता तो कब का इसे कौड़ियों के भाव बेच देते.

यूपीए2 के शासन काल में 2जी स्पेक्ट्रम, कोल आवंटन घोटाला, यूरेनियम घोटाला सहित कितने अनाम घोटाले हैं कि इसकी गिनती करना अभी मुमकिन नहीं है. अगर, सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में ये जांच नहीं होते सारे नेता दूध के धुले हुए निकलते. इस बीच मीडिया पर भी दाग लग चुके हैं. कई मीडिया हाउस का नाम कोयला आवंटन में आ चुका है तो कई पर विज्ञापन विवाद का साया परछाई की तरह पीछा नहीं छोड़ रहा. देश के सबसे बड़े औद्योगिक समूहों में से एक टाटा समूह की पीआर रही नीरा राडिया का टेप बाहर आते ही बहुत सारे लोगों के चेहरे सामने आ गए.

आए दिन हर राज्य में किसी ना किसी मुंख्यमंत्री के नजदीकी रिश्तेदारों का किसी ना किसी घोटाले में शामिल होना क्या बताता है. यही ना उन्हें भारतीय न्याय प्रणाली से कोई डर नहीं है. सब कुछ थोड़े समय के हो-हल्ले के बाद शांत हो जाता है. चाहे वह मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह की पत्नी के नाम पर डंपर घोटाला हो या कोई और. कई मंत्री, विधायक, सांसद हत्या, बलात्कार, अपहरण, मार-पीट, सरकारी औऱ गैर-सरकारी जमीन कब्जा करने जैसे अनेक केस मे शामिल हैं और वे अब तक कानून की खामियों का लाभ उठा रहे हैं. फिर कहा जाता है कि भारत में सब कोई बराबर है. क्या ऐसा है?

अगर, ऐसा होता तो हमारे देश के केंद्रीय गृह मंत्री, इतनी बेहयाई से नहीं कहते कि जनता जिस तरह से बोफोर्स कांड को भूल गई उसी तरह से सब भूल जायेगी. लेकिन जनता भूली नहीं है क्योंकि अगर जनता भूल गई होती तो हाल के चुनावों में कांग्रेस को पूर्वोत्तर के एक राज्य को छोड़कर हर जगह मुंह की नहीं खानी पड़ती.

वैसे भी दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उदय ने स्थापित पार्टियों की नींद हराम कर दी है. लोग अब भ्रष्टाचार से परेशान हो चुके हैं और उन्हें सही छवि का नेता चाहिए, जो जनता के लिए कुछ करने का संकल्प ले. क्योंकि जनता ने सभी दलों को देख लिया है. चाहे कोई नवगठित पार्टी ही क्यों ना हो. सभी अपने-अपने स्तर पर दिखावा ही सही बदलाव करने लगे हैं और यह कम से कम भी दिख तो रहा है, जो इससे पहले नामुमिकन था. लोकपाल बिल के पारित होने से लेकर संगठन में बदलाव और ईमानदार छवि के नेताओं को आगे लाना आदि इसी कड़ी का नतीजा है.

हम सब आने वाले नए वर्ष में एक नए राजनीतिक बदलाव की आशा करते हैं. इन्हीं आशाओं के साथ हम नए वर्ष का स्वागत करते हैं.

Read more: http://mediadarbar.com/25043/corruption-investigation-continues/#ixzz2o61FiXut

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply