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धर्मनिरपेक्षता के नाम पर..!!

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

लालू यादव चारा कांड में जेल से रिहा होते ही फिर से तुष्टीकरण की अपनी पुरानी रणनीति पर आ गए। उन्होंने 15 वर्षों के शासन काल में बिहार को तो छला ही, साथ में जनता के भरोसे को भी तोड़ा। कभी इन्होंने ही बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी की गाल की तरह बनाने का जनता से वादा किया था। वाह क्या धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करते हैं साहब। देश-विदेश के लोग उनके मुरीद रहे हैं।

लालू यादव का राष्ट्रीय राजनीति में 1989 के मंडल-कमंडल के आंदोलन के बाद से उत्थान हुआ था। उस समय बिहार की पिछड़ी जातियों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया था। इनके पास काम करने के लिए बहुमत भी था, लेकिन इन्हें ना काम करना था और ना किया।

जिस तरह से लालू यादव ने 15 वर्षों के शासन काल में बहार को तबाह करके रख दिया। वह किसी से छुपा है क्या। पिछड़ी, दलित, अनुसूचित जाति और जनजाति के वोट बैंक के साथ-साथ यादव, मुसलमान और कुछ अगड़ी जाति उनका पक्का वोट बैंक बन गया था लेकिन धीरे-धीरे उनकी कारगुजारियों व संबंधियों को आगे बढ़ाने कारण सब अलग होते चले गए, लेकिन उन्होंने क्या किया। प्रशासन से लेकर हर स्तर पर अराजकता की स्थिति पैदा कर दी थी। बिहार की राजधानी पटना में दिन-दहाड़े लूट-पाट से लेकर, गोलीबारी सामान्य घटना थी तो अन्य जगहों की बात क्या कहें। शिक्षा को तो चौपट ही करके रख दिया। अपराधियों और बाहुबलियों का सत्ता में दखल पूरे जोर पर था।

राष्ट्रीय जनता दल के शासन के दौरान बिहार में एक मात्र उद्योग अपहरण उद्योग का बोलबाला था और यह खूब फला-फूला। इस कारण से बिहार से हर क्षेत्र में काफी पलायन हुआ। एक तो पहले से ही उद्योग-धंधे कम थे और जो थे, वो भी बंद होते चले गए या दूसरे राज्यों में शिफ्ट होते गए। इससे राज्य में बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी हो गई और लोग अन्य राज्यों मे मजदूर बनकर रह गए। बिहार से प्रतिवर्ष शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्र देश के दूसरे राज्यों और विदेशों में बड़ी भारी संख्या में जाने लगे। जबकि यहां ना तो प्रतिभा की कमी रही है और ना ही संसाधनों की।

अपने चाटुकारों की नजर में साहेब कहे जाने वाले लालू प्रसाद यादव ने अपनी सत्ता अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए बिहार का बंटवारा कर दिया और यहां के खनिज संपदा नव-निर्मित राज्य झारखंड के अधीन हो गई। आजादी के समय से ही झारखंड राज्य के निर्माण के लिए आंदोलन होते रहे लेकिन किसी ना किसी कारण से उसे केंद्रीय नेतृत्व दबा देता था। और यहां राज्य को इसलिए बांट दिया कि राबड़ी देवी निष्टकंटक राज्य करती रहे।

हमारे देश के लोग भी बड़े अजीब हैं और राजनीतिज्ञ लोग ऐसे लोगों का फायदा लेने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। जात-पांत, धर्म और संप्रदाय के नाम पर लोगों को बांटकर हमारे नेता हमेशा से मौज करते रहे हैं। लेकिन समय के साथ अब इसमें तब्दीली आने लगी है। इसका नतीजा हाल ही में दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव में दिखा जब एक नई नवेली पार्टी – आम आदमी पार्टी (आप) ने अपने गठन के साल भर के अंदर में ही अरविंद केजरीवाल और सहयोगियों के कुशल नेतृत्व में दिल्ली में 28 सीटों पर विजय प्राप्त की और कांग्रेस के 15 वर्षों के शासन को उखाड़ फेंका। इसके पीछे, मूल तौर पर आम आदमी का सियासी दलों के नेताओं से विश्वास का उठना है। जिस तरह से इस देश के नेता सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जीते हैं और वोट लेने के बाद जनता के दरवाजे पर दस्तक देना अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते रहे हैं, अब उसमें बदलाव लाना होगा। वरना स्थापित दलों को अब कोई नहीं पूछने वाला।

अभी हम तो लालू प्रसाद यादव जी के द्वारा जेल से बाहर आने के बाद फिर से सक्रिय राजनीति में आने और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर लोगों को एकजुट करने के आह्वान पर ठगे से हैं।

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