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निर्भया गैंगरेप कांड के एक साल बाद..!!

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

16 दिसंबर 2012 को दिल्ली के वसंतकुंज में फिजियोथेरेपी की अंतिम वर्ष की छात्रा निर्भया/दामिनी/ज्योति (असली नाम शायद ही किसी को मालूम हो, यह तो मीडिया द्वारा दिया गया नाम है।) के साथ छह वहशियों ने जिस तरह की गैंगरेप की घटना को अंजाम दिया, उससे पूरा देश उबल पड़ा। पूरे देश में, इस घटना के विरोध में स्वत:स्फूर्त आंदोलन खड़ा हो गया।

हर किसी को निर्भया में अपनी बच्ची, मां-बहन की छवि नजर आने लगी और लगने लगा कि अपराधी हमारे आस-पास ही मौजूद है और अगर हम आज खड़े नहीं होते हैं तो हमारे अपने भी इसके शिकार हो सकते हैं। देश भर में फैले गुस्से को देखते हुए केंद्रीय सरकार ने कड़े कानून का प्रावधान किया। लेकिन कड़े कानून का भय अपराधियों में खौफ पैदा नहीं कर पाया। नहीं तो क्या कारण है कि इस तरह के अपराध घटने के बजाए और बढ़ते ही जा रहे हैं।

आए दिन जैसे इस तरह की घटनाओं की बाढ़ सी आ गई है। इसके दो कारण हो सकते हैं – पहला कारण कि पहले पुलिस घटना दर्ज ही नहीं करती थी और अब वह दर्ज कर रही है तो दूसरा महिलायें पहले से ज्यादा मुखर हो गई है और वह अपने खिलाफ होने वाले अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष के लिए आगे आ रही है। वक्त बदल रहा है… पुरुषों को भी महिलाओं के खिलाफ अपनी सोच को बदलना होगा।

लड़की के जन्म के समय से ही परिवार में उसके खिलाफ वातावरण तैयार हो जाता है। लड़कों और लड़कियों के पालन-पोषण में बहुत ज्यादा अंतर किया जाता है। लड़की को पराया मानकर उसे उसके अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। यह हकीकत है, कोई फंसाना नहीं। इसे अगर देखना हो तो कहीं भी चले जाइये, एक-आध अपवाद को छोड़कर हर जगह आपको ऐसा देखने को मिल जायेगा। पढ़े-लिखे परिवारों में भी यह स्थिति देखने को मिलती है। बिजनेस करने वाले परिवारों में तो यह बड़े पैमाने पर देखा जाता है।

जबकि अगर लड़कियों को लड़कों के समान पढ़ाया-लिखाया जाये, हर तरह की सुविधायें दी जाये तो वे लड़कों से हर मामले में इक्कीस साबित होती रही हैं। आप किसी विद्यालय के आंकड़ों को उठा कर देख लें, हकीकत समझ में आ जायेगी।

आज लड़कियां हर स्तर पर समाज में आगे आई है। इसके एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं। चाहे विज्ञान के क्षेत्र में हों या समाज सेवा या राजनीति के क्षेत्र में। किरण मजूमदार शॉ, किरण बेदी, प्रतिभा पाटिल, सोनिया गांधी, शीला दीक्षित, मायावती, जयललिता, कल्पना चावला जैसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं। और इन लोगों ने अपने कार्य से साबित कर दिया है कि मौका मिलने पर वे किसी से कम नहीं हैं।

भारत में साल में दो बार देवी की अराधना की जाती है। शास्त्रों में कहा भी गया है कि यत्रनार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता यानि जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवताओं का निवास होता है। एक तरफ तो हम नारी की पूजा करते हैं और दूसरी तरफ हम उन्हीं के साथ दोहरा व्यवहार करते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत वे इस दोहरे व्यवहार की शिकार होती है। तभी तो वे कहती हैं कि अगले जन्म मोहे बिटिया ना कीजौ…। पग-पग पर अपने साथ हो रहे व्यवहार से वो अपने-आप को छला महसूस करती हैं। अपने गर्भ में 9 महीने तक रखकर बच्चे को जन्म देने वाली मां (लड़की) के साथ जमाना किस तरह का व्यवहार करता है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। उसके अपने ही उसे कष्ट देते हैं।

पंजाब-हरियाणा और देश की राजधानी दिल्ली में तो लड़कियों को बड़े पैमाने पर गर्भ में ही मार दिया जाता है। इस मामले में कम पढ़े-लिखे लोग पढ़े-लिखे लोगों की अपेक्षा बेहतर कहे जा सकते हैं, चाहे कारण जो भी हो, कम से कम वे लड़की को गर्भ में मारते तो नहीं हैं ना।

हर जगह चोरी-छुपे चिकित्सक गर्भ में कन्या शिशु की जांच करके उसे मारने का काम करते हैं। क्या यह उन्हें इसी की शिक्षा दी जाती है। जबकि अल्ट्रासाउंड मशीन का आविष्कार गर्भ में विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए किया गया था। हालांकि अब इसमें पहले से कमी आई है, लेकिन पैसे के लालच में बहुत सारे डॉक्टर जिसमें महिला चिकित्सकों की अच्छी संख्या है, गर्भ में बच्चियों को मारने का काम करती है। अगर ये जन्म ले भी ले तो समाज हर पग पर इनके लिए परेशानियों खड़ी करता है।

ऐसा नहीं है कि बदलाव नहीं आया है। समय के साथ बहुत कुछ बदला है। ऐसे भी मां-बाप हैं जिन्हें सिर्फ एक ही बच्ची है और वे इसका पालन-पोषण उम्दा तरीके से कर रहे हैं, लेकिन उन्हें भी हर वक्त अनहोनी का डर सताता रहा है।

निर्भया कांड में शामिल छह आरोपियों में से एक आरोपी ने जेल में फांसी लगा ली तो चार आरोपियों को निचली अदालत ने फांसी की सजा दी और एक नाबालिग को तीन साज की सजा सुनाई, जिसको फांसी देने के लिए निर्भया के माता-पिता और विभिन्न सामाजिक संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। वैसे भी नाबालिग आरोपी ने ही निर्भया पर सबसे ज्यादा जुल्म किए थे। इसी ने उसके जननांगों में लोहे की रॉड घुसाई थी, तथा दो-दो बार रेप किया था।

निर्भया ने अगर अपराधियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया होता तो क्या लोगों को इसकी जानकारी होती, उसने तो डटकर अपराधियों का मुकाबला किया, क्योंकि उसने अपने शरीर को सौंपने से इनकार कर दिया था, यह उसका शरीर था और उस पर निर्भया का अधिकार था ना कि वहशी दरिंदों का। उसके साथी ने भी वहशी दरिंदों का डटकर मुकाबला किया लेकिन लोहे की रॉड से उसके सर पर अपराधियों ने वार कर दिया जिसके कारण वह निर्भया के साथ हुए अत्याचार के खिलाफ ज्यादा समय तक संघर्ष नहीं कर सका और अपराधी अपने मकसद में कामयाब रहे। उन्होंने गैंगरेप करने के बाद दोनों को सुनसान जगह पर चलती गाड़ी से फेंक दिया, जिसके बाद की पूरी कहानी सभी को मालूम है।

मुंबई में महिला फोटो पत्रकार के साथ हुए गैंगरेप की घटना और हाल ही में तहलका के एडिटर-इन-चीफ, तरुण तेजपाल के द्वारा अपने मातहत कार्यरत महिला पत्रकार का यौन शोषण या सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत जज, अशोक कुमार गांगुली का केस हो या आसाराम और उसके पुत्र नारायण साई के द्वारा महिलाओं के साथ रेप और यौन उत्पीड़न का केस। यह बताने के लिए काफी है कि इस तरह के अपराध में हर तरह के लोग शामिल हैं।

आए दिन मीडिया में गुरु द्वारा अपनी शिष्या के साथ छेड़छाड़ या रेप की घटनायें सुर्खियां बनती हैं। जबकि हमारे शास्त्रों में गुरु का दर्जा भगवान से भी उपर दिया गया है। श्लोक में कहा भी गया है – गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाये। बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो सिखाये। हम सबको गहराई से इस तरह के मामलों पर विचार करना होगा। आखिर, क्या कारण है इसके पीछे – समाज में बढ़ रही यौन उत्कंठा, संयुक्त परिवारों का टूटना, बेरोजगारी से उत्पन्न मानसिक अपराध आदि।

इस तरह के कृत्यों में शामिल लोगों को जब तक सजा नहीं दी जाती है तब तक ऐसे लोगों को बढ़ावा ही मिलेगा। ऐसे तत्वों के साथ किसी तरह की छूट नहीं मिलनी चाहिए, ये वो मानसिक रोगी हैं, जिनका इलाज बेहद कठिन है और अगर इनके साथ समाज व प्रशासन कड़ाई से पेश नहीं आया तो इस तरह के मामले और बढ़ेंगे ही, जैसा कि आये दिन देखने को मिलता है। ऐसे में प्रशासन को चाहिए कि फास्ट ट्रैक कोर्ट (त्वरित न्यायलयों) का गठन करके मामलों का निष्पादन जल्द से जल्द करके अपराधियों को कठरो सजा दी जाये।

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