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मैं भी एक मतदाता हूं!!

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

कहने को तो मैं भी एक मतदाता हूं,
लेकिन क्या किसी ने कभी मुझसे पूछा है,
भाई आपके पास वोटर आई कार्ड है
आपको किसने यह सब उपलब्ध कराया
और नहीं है तो क्यों नहीं है?

प्रवासियों के पास
अपना कुछ भी तो नहीं होता
है परेदश में।
सबकुछ सहेजने में वक्त लगता है।

एक उम्र बीत जाती है,
पाई-पाई जोड़ने।
और घर-गृहस्थी बसाने में
और दो पल भी नहीं लगते
इन बसी बस्तियों को उजाड़ने में

नेताजी का क्या है!
वो तो हर जगह,
चाहते ही हैं, कि
कुछ होता रहे
फसाद।

नहीं तो उन्हें पूछेगा कौन?
कहीं अवैध बस्तियां बसाके,
तो कहीं गरीबों की भलाई
के नाम पर
कुछ आधी-अधूरी
परियोजनाओं का शिलान्यास करके
ये शायद ही कभी पूरी होती है।
वैसे भी पूरा करना इनक मकसद होता नहीं।

गर, ये परियोजनायें पूरी हो जायें,
तो फिर
इनका मकसद
अधूरा रह जायेगा। 
फिर काहे कि नेतागिरी।
काहे का कमीशनखोरी।
सब बंदरबांट हो जायेगा।।

हर चुनाव से पहले
नेताजी अवैध कॉलोनियां
बसाते हैं।
उन कॉलोनियों में वादों की
फुलझड़ियां उड़ाते हैं।
और लोग इनके वादों पर भरासो
करके
इन्हें, फिर से अपना माई-बाप बनाते हैं
हुजूर, आप ही हमारे सब कुछ हो।
अन्नदाता से लेकर..

क्या यही आजादी है।
क्या इसी आजादी के हमने सपने देखे थे।
हर स्तर पर बिचौलिये मौजूद हैं?
इन गरीबों के बीच से ही उठकर
एक बिचौलिया बन जाता है
और वह सारा ऐश-मौज करता
बाकि को ढ़ेंगा दिखाता है।
अपुन का भी कभी
नंबर आयेगा
इसी भरोसे बाकियों
की जिंदगी कट जाती है।
और यह सिलसिला
लगातार जारी रहता है।

अरे, मैं तो भटक ही गया,
मूल मुद्दे से।

मैं भी मतदाता हूं।
अपने घर-शहर को छोड़कर
दूर परदेश।
दो वक्त की रोटियां
कमाने आया हूं, परदेश में।

हालांकि, लोग कहते हैं कि
यह अपना ही देश है।
और ऐसा मैंने किताबों
में पढ़ा भी है।
लेकिन कभी महसूस
नहीं हुआ।
कि जिसे हम अपना देश
समझते और पढ़ते
आए हैं।
वह कभी हमारा, है भी।

यहां, परदेश में
दूसरे के घर
किराये पर रहना मजबूरी है
हम जैसे करोड़ों लोगों की।
और वे अपने
मकान-मालिक के रहमों-करम पर
रहने को मजबूर है।

उसकी मर्जी
आपको कोई पहचान-पत्र दे या ना दे।
फिर आप कैसे साबित करोगे।
बच्चों के स्कूल में एडमिशन
से लेकर

हर जगह पहचान की आवश्यकता होती है।
और उसे लेने के लिए
किस तरह से एक परदेशी
गुजरता है
यह हमसे बेहतर कौन जानता होगा।

सरकारी स्कूलों में भी
नाम लिखवाने जाओ तो
तरह-तरह के
सर्टिफिकेट मांगते हैं।
कहां से दोगे!

गर, दे नहीं सकते
तो चढ़ावा चढ़ाओ बाबुओं को।
फिर सब काम से निश्चिंत हो जाओ।
यहां तो एक-एक घर
के पते पर कई-कई
मतदाताओं के नाम
चढ़े हैं।

शायद तुम्हें मालूम
ना हो।
लेकिन यह इस देश की कड़वी हकीकत है।

तुम्हारा मतदाता पहचान पत्र न बना तो
क्या?
तुम्हारे मकान मालिक ने
कोई सर्टिफिकेट नहीं दिया को क्या?
इस देश में हर कुछ पैसे से होता आया है,
और होता रहेगा।

बस तुम चिल्ल-पों छोड़ो
और, अपने काम पर लग जाओ।
घर में चूल्ला भी
तुम्हारे कारण ही जो जलता है!
छोड़ो! ये मतदान के लफड़े।

अगली बार, फिर से कोशिश करना….।
शायद तुम भी मतदान कर सको।
तुम्हारा भी, वोटर कार्ड बन जाये।।
इसी उम्मीद और आशा में
तो आधी उम्र निकल जाती है।
वो पुरानी कविता
नहीं पढ़ी तुमने।
कोशिश करने वालों की कभी
हार नहीं होती है।।

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