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तहलका, तरुण तेजपाल जस्टिस गांगुली प्रकरण और महिलाओं की अस्मत से खिलवाड़…!

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

हाल में मीडिया जगत में चर्चित और विवादों में रही दो घटनायें जिसमें दो बड़े और प्रतिष्ठित लोगों की मिलीभगत हो, ने लोगों को एक बार फिर से सोचने पर विवश कर दिया है। पहली घटना – तहलका के एडिटर-इन-चीफ, तरुण तेजपाल के द्वारा अपने मातहत ट्रेनिंग पत्रकार के साथ यौन उत्पीड़न का मामला हो, जिसे शुरुआत में हर स्तर पर दबाने की कोशिश की गई। इसे जानने के लिए आप देख सकते हैं कि पहले तो तहलका की प्रबंध संपादक, शोमा चौधरी ने जो खुद एक महिला हैं ने, इसे संस्थान का आंतरिक मामला बताते हुए अपने स्तर पर इसे दबाने का प्रयास किया और इसके लिए उन्होंने एक आंतरिक समिति का गठन किया, जिसमें सिर्फ उनकी हां में हां मिलाने वाले लोग थे।

जबकि विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान सरकार और अन्य में सुप्रीम कोर्ट ने हर संस्थान में यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में जांच समिति बनाए जाते समय यह ध्यान रखने को कहा है कि समिति में आधे सदस्य महिलायें हो और समिति का अध्यक्ष भी महिला होना चाहिए, लेकिन यहां तहलका पत्रिका के द्वारा गठित जांच समिति में ऐसा कुछ भी नहीं था। बाद में, जब पीड़ित लड़की ने इस जांच से अपनी असंतुष्टि जाहिर की और मामले की उच्च स्तरीय जांच की मांग करने लगीं।

इस घटना के बाहर आने के बाद, तरुण तेजपाल, जो इस घटना से पहले पत्रकारिता जगत में अपने स्टिंग ऑपरेशन के लिए ज्यादा जाने जाते रहे हैं। अब उनकी एक नई छवि पाठकों के सामने रही है और लोगों को प्रतिदिन एक नए खुलासे की जानकारी हो रही है। जैसे – कहां-कहां उनके रिसॉर्ट और होटल (दिल्ली में ग्रेटर कैलाश पार्ट2 में अवैध तौर पर निर्मित आलीशान भवन, उत्तराखंड और गोवा में) हैं, जो अवैध तौर पर बनाए गए हैं, उन्होंने टैक्स नहीं जमा कराये हैं आदि.. आदि।

अभी तो शुरुआत है। आगे-आगे देखिए होता है क्या……………….?

दूसरी घटना, सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए जस्टिस अशोक कुमार गांगुली पर उनके यहां इंटर्न पर काम करने वाली एक महिला वकील ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है। हालांकि यह आरोप एक साल बाद लगाया गया है, लेकिन इससे आरापों की गंभीरता कम नहीं हो जाती है। सभी को पता है कि किस तरह से एक लड़की / महिला को कदम-कदम पर आरोपों का सामना करना पड़ता है। और अगर बात जब इस तरह की हो तो आगे चलकर कॅरियर और शादी पर भी असर पड़ता है। हर जगह इस स्थिति से लाभ लेने वाले लोग खड़े हैं। लेकिन बात यहां सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज की हो रही है, जिन पर उनके इंटर्न ने इस तरह के आरोप लगाए हैं।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने एक जांच समिति का गठन कर दिया है। और कुछ न्यायधीशों और वरिष्ठ वकीलों के अनुसार, इस तरह के आरोप तो लगते ही रहते हैं और अगर आरोप लगने मात्र से कोई इस्तीफा दे दे तो बात हो गई। आगे कहीं आरोप गलत हुए तो………….। परंतु यहां लाख टके का सवाल यह है कि आप जिस तरह की अपैक्षा किसी और व्यक्ति से करते हैं कि आरोप लगने पर वो किसी पद पर ना रहे जो जांच को प्रभावित करता हो, तो खुद भी इस पर अमल करना चाहिए ना।

जस्टिस गांगुली की अपनी प्रतिष्ठा रही है और इस देश में लोगों ने देखा है कि किस तरह से बड़े-बड़े और प्रतिष्ठित लोगों ने कैसे-कैसे कारनामें किए हैं। और उनकी छवि तार-तार हो गई है। सो न्याय का तकाजा यही है कि सुप्रीम कोर्ट अपनी जांच समिति की रिपोर्ट बाहर करे और जस्टिस गांगुली सम्मान सहित समय रहते पश्चिम बंगाल के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दें, जिसकी उनके प्रति लोगों का प्यार बना रहे। और इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट का मान-सम्मान बचा रहे।

अब आते हैं। महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे पर………….।

देश की राजधानी, दिल्ली में आए दिन महिलाओं के खिलाफ अपराधों में बढ़ोतरी होती जा रही है और ऐसा तब है जब यहां महिलायें जिंदगी के हर क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री – शीला दीक्षित महिला है, कांग्रेस की अध्यक्षा महिला हैं, विपक्ष की नेता – सुषमा स्वराज महिला हैं, इसके अलावा बड़ी-बड़ी कंपनियों में उंचे पदों पर महिलायें विराजमान है। भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल भी महिला थीं। दिल्ली पुलिस में वरिष्ठ अधिकारी के तौर पर छाया शर्मा तैनात हैं, जो खुद एक महिला हैं। इतना सब कुछ होने के बावजूद महिलायें कहीं भी सुरक्षित नहीं है। देश की राजधानी का यह हाल है तो अन्य भागों या दूर-दराज के प्रांत में क्या हाल होगा, कोई भी आसानी से समझ सकता है।

हमारे देश में महिलाओं को शक्ति का प्रतीक माना जाता है और शास्त्रों में कहा गया है – यत्र नार्युस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता – जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता का निवास होता है। हमारे यहां साल में दो बार शक्ति यानि देवी की अराधना का प्रावधान है और इस सबके बावजूद महिलाओं को हर समय अपनी असुरक्षा का भाव होता है, चाहे वे घर में हों या दफ्तर या कहीं सफर में। कहीं भी महिलायें सुरक्षित नहीं हैं।

कुछ लोग महिलाओं के कपड़े को इसका दोष देते हैं, तो कुछ और तर्क देते हैं। शायद ऐसे लोग ये भूल जाते हैं कि वे भी किसी मां के गर्भ से ही पैदा हुए हैं और उनकी अपनी ना सही तो रिश्ते में तो बहन होगी ही ना। कोई ना कोई तो महिला होगी। अगर उनके साथ इस तरह का अपराध होगा तो वे क्या तर्क देंगे?

अकेली सफर करना या नौकरी करना आज की दुनिया की जरूरत बन गई है और आज नारी जीवन के हर क्षेत्र में सफलता के नए मुकाम लिख रही है, तो उन्हें जाहिर है कि घर से बाहर निकलना ही होगा। फिर अगर उन्हें सुरक्षा नहीं मिलेगी तो उनके मन में एक कुंठा पैदा होगी जो सभ्य समाज के लिए सही साबित नहीं होगा। समाज के विकास के लिए नारी की सुरक्षा अति-आवश्यक है। कुछ देर के लिए हम मान भी लें कि कुछ महिलायें सभ्य तरीके से कपड़े नहीं पहनती है तो उन बच्चों का क्या कसूर होता है जो अभी तो जिंदगी के मायने भी नहीं समझ पाई हैं और उनके रिश्तेदार ही उनकी इज्जत-आबरू से खेलते हैं, और कुछ मानसिक रोगी ऐसे ख़बरों को चटखारे लेकर पढ़ते हैं। जरूरत है समाज में इस तरह के बढ़ रहे अपराधों पर लगाम लगाने की।

आए दिन ऐसी ख़बरें मिलती रहती है। इस तरह की बहुत सारी ख़बरों को तो समाज में लोक-लाज के भय से दबा दिया जाता है, क्योंकि लड़की का जीवन आगे के लिए नर्क बन जाता है और फिर पता चल जाने पर समाज में उसे कोई स्वीकारता नहीं है। उसकी पूरी जिंदगी तबाह होकर रह जाती है। ऐसे दरिदों को सबक सीखाने के लिए कड़े कानून का प्रावधान करना होगा तथा फास्ट ट्रैक कोर्ट में ऐसे मामलों को चलाकर पीड़ितों को त्वरित न्याय दिलाना होगा जिससे मानसिक तौर पर कुंठित अन्य अपराधियों पर लगाम लगाने में मदद मिल सके।

हमारा देश ने आजादी के 65 सालों में काफी तरक्की की है इसमें कोई शक नहीं है, लेकिन हम लोगों की मानसिकता को बदलने में कामयाब नहीं हो सके हैं। एक पीडित लड़की जब इस तरह के अपराधियों के खिलाफ शिकायत लेकर थाने में जाती है तो उससे तरह-तरह के सवाल किए जाते हैं और उसे ही दुष्चरित्र साबित करने की कोशिश की जाती है।

आखिर कब तक नारी को अबला समझा जाएगा। जबकि आज के समय में लड़कियों/महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि अगर उन्हें भी उचित मौका दिया जाता है तो वे लड़कों से किसी भी मामले में कम नहीं हैं और आप देख सकते हैं कि किरण बेदी, किरण मजुमदार शॉ से लेकर तमाम लड़कियों ने अपनी शिक्षा के बूते जिंदगी की उंचाईयों को छूने में कामयाबी हासिल की। चाहे आप राजनीति को ही लें। जब से महिलाओं को ग्राम स्तर पर 50 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा विभिन्न प्रांतों में मिली है, तो भ्रष्टाचार में महत्वपूर्ण कमी देखने को मिली है और वे अपने गांव के विकास के लिए आगे भी आई हैं।

दिल्ली में सबसे अधिक पुलिस वाहन (पीसीआर) हैं और इस सबके बावजूद अपराधियों पर लगाम लगाने में कोई कामयाबी दिल्ली पुलिस को नहीं मिली। इसके पीछे या तो राजनीतिक निर्णय की कमी या अपराधियों का दुस्साहस है कह नहीं सकते। कुल मिलाकर हमारे देश के लिए यह शर्म की बात है।

समाज के सभी वर्गों के लोगों को मिल-बैठकर इस समस्या पर बात करने औऱ जल्द से जल्द काबू करने के उपायों पर सोचने की जरूरत है। नहीं तो एक दिन यह महामारी का रूप धारण कर लेगा। आज किसी और के साथ हो रहा है, कल यह हादसा किसी और के साथ हो सकता है। इसके लिए जरूरत है कि हम समाज में नैतिक मूल्यों को बढ़ावा दें और अपने आस-पास के अपराधियों के बारे में पुलिस को बताने के साथ ही समाज से ऐसे तत्वों का पूर्ण तौर पर बहिष्कार करें, जिससे किसी की हिम्मत ऐसा करने की ना पड़े?

और अंत में: –

तहलका के कौए को कांग्रेस और इनकी सहयोगी पार्टियों के घोटालों के बारे में कभी पता ना लगना क्या साबित करता है? क्या तहलका के कौए की आंख कानी थी जो सिर्फ भाजपा या संबंधित पार्टियों के भ्रष्टाचार को ही देखा करती थी। हमने कहानियों में पढ़ा है कि इंद्र के बेटे जयंत की आंख कानी हो गई थी (उसने दूसरे की स्त्री को ओर बुरी नजरों देखा था। भगवान जाने हकीकत क्या है?)। सो, हो सकता है कि कानी आंखें होने से तहलका को कांग्रेस या समर्थक पार्टियों के भ्रष्टाचार नहीं दिखे। या वह देखना ही नहीं चाहती थी।। अब जब बुरी तरह फंस गए हैं तो अपने अपराधों को छुपाने के लिए भाजपा पर आरोप मंढ रहे हैं। दूसरी तरफ, भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का अपराध इससे कम नहीं हो जाता है। स्टिंग में तो वो साबित हो ही गया था।

जस्टिस मार्कंडेय काटजू

लगभग हर आम-खास मुद्दे पर अपनी बेबाक राय रखने वाले भारतीय प्रेस परिषद अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू का अभी तक तहलका के एडिटर-इन-चीफ, तरुण तेजपाल के द्वारा सहकर्मी पत्रकार का यौनशोषण के आरोप पर अभी तक कुछ ना कहना हलक में उतर नहीं रहा। वैसे भी जबसे उन्होंने 90 प्रतिशत भारतीयों को मूर्ख कहा, तब से उनकी राय जानने की उत्सुकता बढ़ गई है, आम भारतीयों को उनकी राय का बेसब्री से इंतजार रहता है।।

मेरी व्यक्तिगत राय है कि एक जज के तौर पर मार्कंडेय काटजू की जो प्रतिष्ठा थी, भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने कुछ ही दिनों में गंवा दी। और इसका कारण काटजू अच्छा तरह जानते हैं।।

एक बार जब लोगों के मन में किसी के प्रति गलत धारणा बन जाती है तो उसे दूर करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए जिस किसी के दामन पर दाग लगा हो उसे सुनिश्चित करना चाहिए कि वह सबसे पहले अपने दामन पर लगे दाग को साफ करे। फिर…………..। क्योंकि शीशे के घरों में रहने वाले लोगों को दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकने चाहिए।।

मेरा तो यही मानना है कि लोग जन्म से भ्रष्ट नहीं होते।और ना ही राजनीति के मैंदान में आने का मतलब यह है कि वे भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आ ही जाएंगे। ईमानदारी की असल परीक्षा तो तब होती है जब किसी व्यक्ति को भ्रष्टाचार यानि ऊपरी कमाई का अवसर मिलता है और वह इसकी गिरफ्त में नहीं आता। जिन लोगों को भ्रष्टाचार/घूसखोरी/कमीशनखोरी में लिप्त होने का मौका नहीं मिलता है, उनके पास ईमानदार रहने के अलावा कोई चारा नहीं है, किंतु इसका यह मतलब नहीं कि वे मन से भी ईमानदार हैं।

तहलका मामले को गौर से देखें तो तस्वीर का दूसरा पहलू और भी खतरनाक है। कई मामलों में ऐसा देखने को मिला है और यह कुछ हद तक सच है। लड़कियों की हर कीमत पर आगे बढ़ते जाने की भूख भी इस के लिए बहुत हद तक ज़िम्मेदार है। और ये लोग इसका जमकर लाभ उठाते हैं। ऐसा नहीं है कि यह ना कोई पहला मामला है, और ना ही अंतिम।। लेकिन दूसरों पर आरोप लगाने वालों को अपने पर जब आये तो राजनीति छोड़कर सच्चाई का सामना करना चाहिए। इससे बची-खुची विश्वसनीयता जाती रहेगी

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