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आखिर, कब तक प्रताड़ित होते रहेंगे ईमानदार ऑफिसर

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

ग्रेटर नोएडा की एसडीएम, दुर्गा शक्ति नागपाल को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, अखिलेश यादव ने अपने चहेते मंत्री और खनन माफियाओं के इशारे पर निलंबित किया था। सबको पता है कि इस देश में चुनावों में किस तरह से काले धन का इस्तेमाल होता है और ये खनन माफिया अपनी कमाई का एक हिस्सा उपर के लोगों को नियमित तौर पर पहुंचाते थे, इसमें अधिकारी से लेकर नेता यानि सभी तरह के लोग शामिल थे, जिस तरह से वे खनन माफिया के खिलाफ पिछले दो सालों से कार्यवायी कर रही थीं, ये तो एकदिन होना तय था। सरकार को कोई बहाना मिल नहीं रहा था, क्योंकि इससे पहले वहां खनन माफियाओं ने अपने खिलाफ कार्यवायी करने वाले दो अधिकारियों के खिलाफ ना सिर्फ जानलेवा हमला किया था बल्कि अपने उंचे संपर्कों के जरिए वहां से उन्हें हटाने में सफलता पाई थी और अपना कार्य अबाध गति से जारी रखा था। एक तरह से क्षेत्र में खनन माफियाओं का आतंक राज कायम था।

अब जबकि डीएम की जांच रिपोर्ट में भी यह साफ तौर पर साबित हो चुका है कि दुर्गाशक्ति नागपाल की मस्जिद की दीवार गिराने में कोई भूमिका नहीं थी, तब भी अखिलेश सरकार अपने गलत निलंबन आदेश पर ना सिर्फ बेहयाई से अड़ा है बल्कि उसे सही साबित करने के लिए सांप्रदायिकता का सहारा ले रहा है।

वैसे दुर्गा शक्ति नागपाल का निलंबन रद्द किया जा चुका है, लेकिन ऐसा क्यों होता है कि एक ईमानदार ऑफिसर को बार-बार आतंकित किया जाता है। यूपी में बसपा के राज में अमिताभ ठाकुर को इसी तरह से प्रताड़ित किया गया था। फिर मंजूनाथ जैसे ईमानदार अधिकारी को किस तरह से यातना दी गई सब जानते हैं। इसके अलावा, हाल ही में हरियाणा में डीएलएफ और रॉबर्ट वाड्रा के बीच जमीन सौदे की जांच की मांग करने वाले आईएएस अधिकारी अशोक खेमका को 20 वर्षों के कार्यकाल में 42 बार तबादला झेलना पड़ा है। हरि अनंत, हरि कथा अनंता की तरह ऐसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं। चाहे आप मीडिया में चर्चित सुशासन की सरकार के ही आंकड़ें को ले लें, वहां भी ईमानदार अधिकारियों को कापी प्रताड़ित किया जाता रहा है।

बचपन से हम ईमानदार अधिकारियों को प्रताड़ित किए जाने को देखते औऱ सुनते आ रहे हैं और आजकल तो इसमें हद हो गई है या फिर सोशल मीडिया के प्रभावी भूमिका में आने के कारण कोई भी घटना इससे छुपी नहीं रह जाती है, वह कारण है? कारण जो भी हो, यह अत्यंत चिंता का विषय है?

आखिर, कब इसमें सुधार होगा। जब कभी कोई ईमानदार ऑफिसर काम करता है तो या तो उसे रास्ते से हटा दिया जाता है या उसे ऐसे महत्वहीन पदों पर भेज दिया जाता है, जहां वह कुछ कर ही ना पाए और इस तरह से राजनीतिक और भ्रष्ट माफिया तत्वों का गठजोड़ काम करता है। आजादी के ६५ सालों के बाद भी इसमें कोई सुधार नहीं आया है। सभी देख रहे हैं कि किस तरह से एक-दूसरे को पानी पी-पी कर दिन-रात गालियां देने वाले सभी राजनीतिक दल और नेता अपने आपसी मतभेद भुलाकर राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से बाहर रखने के लिए सूचना के अधिकार कानून में ही बदलाव करने को तैयार बैठे हैं और इसके लिए वे संसद के मॉनसून सत्र का इंतजार ना करके अध्यादेश तक लाने की बात पर जोर दे रहे हैं। क्या अब भी आपको लगता है कि भारत में लोकतंत्र नाम की कोई चीज है? यहां तो बस एक ही कहावत फिट बैठती है – जिसकी लाठी, उसकी भैंस। लोकतंत्र की सफलता के लिए लोगों का शिक्षित होना बहुत जरूरी है, लेकिन जब समाज में लोग धर्म, जाति और प्रांत के आधार पर अपनी व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं की पूर्ति में लगें हो तो ऐसे में समाज के विकास की बात ही बेमानी हो जाती है?

हालांकि, इस देश के लोगों ने आपातकाल का विरोध करके और इंदिरा जैसी शक्तिशाली प्रधानमंत्री को भी चुनावों में धूल चटाकर अपनी सूझबूझ का परिचय दिया है। यह भारत की ही जनता है जिसने राजीव गांधी को उनकी माता, इंदिरा गांधी के असामयिक मृत्यु (खालसा समर्थक आतंकियों के द्वारा मारे जाने के बाद) पर अभूतपूर्व जनमत से जिताया था और फिर बोफोर्स तोप घोटाला सामने आने पर सत्ता से पदच्युत भी कर दिया था। सो हमारे देश की जनता समय-समय पर अपने निर्णयों से सबको चौंकाती भी रही है, लेकिन इस देश में सांप्रदायिकता, धार्मिकता, प्रांतीयता और जातिवाद ने इस तरह अपनी जड़े जमा ली है कि इसके सहारे हर अपराधी अपने जातिगत समीकरणों, पैसे और बाहुबल के बूते लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाले संसद और विधायिका में जा पहुंचे हैं और अब तो यह काफी घातक स्तर पर आ चुका है? अगर, समय रहते इन सब समस्याओं पर जनता की नज़र नहीं गई औऱ इसे तत्काल रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब कथित राजनेता अपने लाभ के लिए इस देश को टुकड़े-टुकड़े में बांट देंगे? नेता और उनके समर्थक चंपू लोग हर चीज को सांप्रयादिक चश्मे से देखते हैं, इसी में वे अपना भला समझते हैं, जबकि हकीकत उन्हें भी अच्छी तरह से पता होती है।

कभी-कभी बहुत दर्द होता है जब राजनीतिज्ञों के गलत कारनामों को लोग धर्म के आधार पर सही ठहराते हैं। अभी आप देख रहे हैं कि किस तरह से कुछ लोग दुर्गा शक्ति नागपाल के द्वारा (सत्ताधारी पार्टी के अनुसार) मस्जिद को गिराने को सांप्रदायिक रंग देने पर पूरा जोर दिया जा रहा है और वे पूछ रहे हैं कि दुर्गा शक्ति नागपाल ने अपने दो वर्षों के कार्यकाल में कितने मंदिर या अन्य धर्मों के धार्मिक स्थलों यानि गिरिजाघरों को गिराया है, मस्जिद को छोड़कर!

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