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लौट के बुद्धू घर को आए

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

लालकृष्ण आडवाणी ने अपना इस्तीफा वापस ले लिया है और वे फिर से पार्टी के लिए काम करेंगे, लेकिन इस बीच जो नुकसान उन्होंने अपनी हरकतों से पहुंचाया है, उसकी भरपाई आने वाले समय में पार्टी को करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।

बुढ़ापे में मति मारा जाना शायद इसी को कहते हैं। लालकृष्ण आडवाणी ने जो कुछ किया वह राजनीतिक दलों में कोई पहली बार नहीं हुआ है। अगर भारतीय राजनीति पर गौर करेंगे तो इस तरह पर्दे के पीछे और बाहर एक-दूसरे को पटखनी देने का खेल हमेशा से चलता रहा है, हां, कभी-कभी कुछ लोगों की वजह से यह सुर्खियां पा जाता है औऱ लोगों की दिलचस्पी बढ़ जाती है। भ्रष्टाचार सहित अन्य मामलों की तरह कांग्रेस की देखा-देखी विभिन्न राजनीतिक दलों ने कांग्रेस में प्रचलित राजनीतिक परंपराओं को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया।

देश की आजादी के पहले कांग्रेस अध्यक्ष के चयन में भी ऐसा देखने को मिला था। जब सुभाष चंद्र बोस चुनाव जीते थे तो किस तरह से मोहन दास करमचंद गांधी मुंह फुलाकर बैठ गए थे और फिर उनको इस्तीफा देना पड़ा था और गांधी जी के चहेते – पट्टाभि सीतारमैय्या को पद पर बिठाया गया था। पहली बार, कांग्रेस ने लोकतांत्रिक तरीके से जीते अपने ही अध्यक्ष को काम नहीं करने दिया ता। उस चुनाव में बोस को जहां 1580 वोट मिले थे वहीं पट्टाभि सितारमैय्या को 1377 वोट ही मिले थे।

इस पूरे घटनाक्रम से दुखी होकर सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया था। फिर आजादी के बाद, 1966 में भी ऐसा ही देखने को मिला जब तत्कालीन सोवियत रूस के ताशकंद में पाकिस्तान के साथ समझौता वार्ता के बाद प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी ने सत्ता संभाली थी। उस समय भी पार्टी में दो फांक हुए थे। इसके बाद, 1984 में इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद 1984 में वर्तमान राष्ट्रपति, प्रणव मुखर्जी की प्रतिक्रिया (जिसे पीएम पद की लालसा के तौर पर दखा गया) को देखते हुए गांधी-नेहरू परिवार की तरफ से जोरदार प्रतिरोध हुआ था और प्रणव मुखर्जी को कांग्रेस पार्टी छोड़नी पड़ी थी और फिर लंबे अंतराल के बाद मुखर्जी ने पार्टी ज्वाइन किया। भारतीय राजनीति में रूचि रखने वाले हर किसी को मालूम है कि प्रणव मुखर्जी ने प्रधानमंत्री पद की इच्छा पूरी ना होते देख राष्ट्रपति भवन का रूख किया है।

पी.वी.नरसिम्हा ने भी प्रधानमंत्री बनने के बाद दिवंगत प्रधानमंत्री, राजीव गांधी के द्वारा लोकसभा का टिकट काटे जाने से नाराजगी को लेकर सोनिया गांधी की जमकर अवहेलना की थी औऱ इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था वह सम्मान उन्हें पार्टी से नही मिल सका। हालात तो यहां तक हो गए कि वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उसी नरसिम्हा राव की खोज हैं लेकिन उनके निधन के बाद मनमोहन सिंह ने दो शब्द भी व्यक्त करना उचित नहीं समझा क्योंकि उन्हें मैडम सोनिया के नाराजगी का खतरा था। गौरतलब है कि पहली बार नरसिम्हा राव ने ही मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया था और नेहरू की समाजवादी अर्थव्यवस्था के स्थान पर खुली अर्थव्यवस्था को लागू करने के लिए पूरी छूट दी थी। वक्त-वक्त की बात है। सीताराम केसरी को भी कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह से निपटाया वह राजनीति की ख़बरों में रूचि रखने वाले लोगों को भूला नहीं होगा।

एक ही पार्टी की बात नहीं है। ऐसी बात हर पार्टी में है और इसके लिए बस इतिहास के पन्ने को टटोलने की जरूरत है। सभी को याद होगा कि किस तरह से रामकृष्ण हेगड़े ने देवगौड़ा को कर्नाटक में जनता दल की ओर से मुख्यमंत्री बनाया था और खुद केंद्र में राजनीति करना चाहते थे, लेकिन देवगौड़ा ने हेगड़े के साथ जिस तरह का व्यवहार किया, वह किसी से छुपा नहीं है। दक्षिण के एक और राज्य तमिलनाडु की बात करें तो द्रविड़ मुनेत्र कड़गम से ऑल इंडिया द्रव़िड मुनेत्र कषगम (अन्नाद्रमुक) में विभाजन कोई सैद्धांतिक कारणों से नहीं था, बल्कि उसके पीछे शुद्ध तौर पर व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा काम कर रही थी। एक और राज्य आंध्र प्रदेश का ही उदाहरण लें, वहां भी किस तरह से लेलुगू देशम पार्टी में एन टी रामाराव की विरासत के लिए उनके दामाद और परिवार के अन्य सदस्यों में जूतम-पैजार हुई किसी से छिपा नहीं है। बाद में, चंद्रबाबू नायडू ने उनकी विरासत को संभाला। उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह और मुलायम सिंह में चरण सिंह की विरासत को लेकर आजतक संघर्ष जारी है। आंध्र प्रदेश में ही कांग्रेस के मुख्य मंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद उनके पुत्र जगन मोहन रेड्डी ने मुख्यमंत्री का पद पार्टी द्वारा नहीं दिए जाने पर पार्टी को किस तरह से विभाजित करके वाईएसआर कांग्रेस का गठन कर लिया और कांग्रेस को अच्छी क्षति पहुंचायी है।

बिहार में मंडल-कमंडल की लड़ाई के बाद से सत्ता पर काबिज लालू प्रसाद यादव ने जनता दल को किन वजहों से तोड़कर राष्ट्रीय जनता दल बनाया, इस पर विशेष चर्चा की जरूरत नहीं है। वर्तमान मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांडीस सहित कई अन्य लोग तब एक ही मंच पर हुआ करते थे। अभी नीतीश कुमार की जेडीयू और भारतीय जनता पार्टी में जो आंतरिक कलह मची है वह भी मात्र सत्ता और वोट बैंक को लेकर है ना कि किसी विशेष सिद्धांत के लिए।

सत्ता की लालसा जो ना कराए। खैर, देशवासियों ने बड़े ही गौर से 28 घंटे चले ड्रामा को देखा है। हद तो तब होती है कि यही आडवाणी थे जो 2002 में नरेंद्र मोदी का बचाव किया था। और फिर बदले में मोदी उन्हें नईदिल्ली सीट को छोड़कर गुजरात के अहमादाबाद से लड़ने का न्यौता देते हैं और वे इसे स्वीकार ही नहीं करते बल्कि दोनों समय-समय पर एक-दूसरे का बचाव भी करते रहे हैं। लेकिन यह सब आडवाणी के लिए तभी तक स्वीकार था जब तक कि नरेंद्र मोदी गुजरात में थे, जैसे ही मोदी ने देश के अगले पीएम पद के लिए अपनी दावेदारी पेश की, बस फिर क्या था, आडवाणी को नमो में हर तरह की खामी नज़र आने लगी। वे यहां तक कह गए कि गुजरात पहले से ही विकसित राज्य था और मध्य प्रदेश बीमारू राज्यों में शुमार था जिसे शिवराज सिंह जैसे मुख्यमंत्री ने अपनी कार्यकुशलता से विकास के रास्ते पर लाया है। आडवाणी की नज़र में भाजपा की ओर से शिवराज सिंह नबर वन मुख्यमंत्री बन गए थे और इसके पीछे वजह यह थी कि उन्हें अब अहमदाबाद से लड़ने में अपनी हार दिख रही थी। दिल्ली पहले से ही भाजपा के कब्जे में नहीं है। अपने भविष्यट को लेकर चिंतित आडवाणी ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते हुए पार्टी के पदों से इस्तीफा सौंप दिया, लेकिन सभी को मालूम था कि यह ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है। एक तो भारतीय जनता पार्टी से जो भी नेता अतीत में गए हैं, उनकी हालत इसकी गवाही देते हैं और दूसरे अब उम्र भी इसकी इजाजत नहीं देता कि वे एक नई पार्टी खड़ा करें। सो, भलाई इसी में था कि अपने और समर्थकों के लिए सौदेबाजी किया जाए और आडवाणी ने वही किया।

अगले लोकसभा चुनाव में अभी 1 साल की देरी है। पार्टी की संभवानाओं के लिए मिलकर लड़ने के बजाए ये नेतागण आपसी लड़ाई के द्वारा पार्टी की लूटिया डूबोने में लगे हैं।

आज आडवाणी सवाल उठा रहे हैं, वे इतने दिनों से कहां थे। पार्टी इतने दिनों से तो उन्हीं के नेतृत्व में कार्य कर रही थी? किसी को भी अपनी खीस निकालने के लिए इस तरह से पार्टी को संकट में नहीं डालना चाहिए।, चाहे कोई भी पार्टी हो, क्योंकि पार्टी किसी भी व्यक्ति विशेष से बड़ा होता है। माना कि आडवाणी का योगदान इस पार्टी को खड़ा करने में मौजूदा किसी भी मौजूदा नेता से बड़ा है, लेकिन इससे उनको यह हक नहीं मिल जाता कि वे इस पार्टी को मिट्टी में मिलाने के लिए कार्य करें। गलतियां अगर किसी से हुई है तो वे पार्टी के मंच या अपनी आंतरिक बैठक में इस पर चर्चा करें और इस पर आम सहमति बनायें ना कि सार्वजनिक तौर पर अपनी छीछालेदारी सहित पार्टी के लिए संकट खड़ा करें। इस उम्र में जब पार्टी के लिए वे पिता की भूमिका निभा सकते थे, उसे अपने अनुभवों से सही नेतृत्व दे सकते थे, पार्टी को ही टुकड़े-टुकड़े करने पर तुले हुए हैं, हालांकि अतीत में भी कई लोगों ने पार्टी छोड़ी और उनका क्या हश्र हुआ, यह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है।

अंत में:

हमारे यहां एक कहावत है – पानी में मछरी (मछली), नौ-नौ कुटिया बखरा। इस कहावत का अर्थ है कि भविष्य में क्या होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन हिस्से के लिए आपस में खींचतान शुरू हो चुकी है। अभी 2014 में एक साल है तब तक गंगा-यमुना में कितना पानी बह चुका होगा और केंद्र सरकार के कई और घोटाले सामने होंगे, जनता को इन मुद्दों पर अपनी बात रखने और स्वच्छ प्रशासन देने के वादे के बजाए आपस में ही लड़ रहे हैं। बाहर वाले तो तमाशा देखेंगे ही। उन्हें इसी दिन का तो सदा से इंतजार रहता है? यूपीए गठबंधन के खिलाफ देश भर में भ्रष्टाचार के कारण जो माहौल बना था, सारी की मिट्टी पलीद करके रख दी, इन लोगों ने अपने कुकर्मों के वजह से, फिर भी अपने को नेता कहते हैं, डूब मरो चुल्लू भर पानी में

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