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हरेश कुमार
चाहे कितनी गर्मी पड़ रही हो या
ठंड या पानी की तेज बौछारें,
लेकिन वो बच्चा हर समय
अपनी झोलियां फैलाये
सड़क पर आने-जाने वालों से
पांच-दस रुपये की मांग करता है।
बाबू जी कुछ दे दो
सुबह से कुछ खाया नहीं है।
कई बार मन में जिज्ञासा हुई कि
इतने पैसों का वो करता क्या है………?
लेकिन फिर यह सोचकर पूछना उचित नहीं समझा कि
पूछना मुनासिब नहीं है।
लेकिन आज फिर जब मैंने
उस बच्चे को भरी गर्मी
जब पारा 45 के करीब हो
बीच सड़क पर
लाल बत्ती के पास करतब दिखाकर
भीख मांगते देखा
तो कौतुहूल और जिज्ञासावश
मेरी आंखें उससे कुछ पूछने को बेचैन हो गई।
आखिर, क्यों वह और उस जैसे बच्चे यह काम करते हैं।
क्यों नहीं भीख में मिले पैसों से
कोई रोजगार सीख लेता है
और फिर
समाज में इज्जत की जिंदगी जीना
शुरू करता है।
लेकिन इससे पहले कि वह कुछ मुझसे कहता
लाल बत्ती, अब हरी बत्ती में तब्दील हो चुकी थी
मेरी गाड़ी झट से सड़क को पार करती आगे निकल पड़ी।
सवाल वहीं का वहीं रह गया।
आखिर, ये बच्चे कौन हैं,
इनके मां-बाप कौन है?
ये रहते कहां हैं,
क्या इनकी परवरिश सभ्य समाज की जिम्मेदारी नहीं?
क्या कोई अपने मन से इस धंधे को अपनाना चाहता है?
तभी अगले स्टॉप पर मेरी गाड़ी लाल बत्ती पर रूकती है।
बिल्कुल उसी तरह का एक अन्य बच्चा
बस में आ जाता है
और बाबू जी कुछ पैसे दे दो
कि रट लगाता है।
कोई पांच रुपये, तो कोई दस रुपये
तो कोई झिड़की देकर
उसे भगाता है।
लेकिन यह जानने की किसी को जरूरत नहीं कि
आखिर, वह कहां से आया।
क्या उसके मां-बाप ने
उसे इस धंधे में लगाया है।
या वह किन्हीं और वजहों से
इस पेशे में आया है।
हम सब अपने काम-धंधे
को समाप्त करके रात को अपने-अपने घरों में
चले जाते हैं। लेकिन ये बच्चे कहां जाए।
इनके लिए तो
यही सड़क घर है। यही इनका मां-बाप और सबकुछ है।
अपराधों की दुनिया में कदम रख चुके
इन बच्चों को गर प्यार से समझाया जाए
उन्हें नई दुनिया में आने के लिए
रोजगार मुहैया कराई जाए
और इस सबकी निष्पक्ष तौर पर
समय-समय पर निगरानी हो
तो मैं नहीं मानता कि
इनमें से कुछ अभागॉं को छोड़कर
कोई भी उस घृणित दुनिया में जाना चाहेगा।
जहां इन बच्चों के साथ
हर तरह के कुकर्म किए जाते हैं
इन्हें ना तो समय पर
खाना दिया जाता है
और ना ही पहनने को सही कपड़े
और ना ही भीख में मिले पैसों में उनका उचित हक
सारे पैसे छीनकर फिर इन्हें
अगली सुबह वही काम शुरू करने के लिए
प्रताड़ित किया जाता है।
कुछ को तो नशे की लत है,
तो कईयों ने इसे पूरा करने के लिए
तमाम तरह के कुकर्म किए हैं।
जो आज इन छोटे बच्चों के साथ होता है
वही वे बड़े होकर अपने से
छोटे बच्चों के साथ किया करते हैं।
इस तरह से एक अनवरत सिलसिला सा चल पड़ा है।
किसी को भी इस मुद्दे पर सोचने
और इसे रोकने की जरूरत महसूस नहीं होती
हर कोई कहता है कि कौन जाए
दूसरे के फटे में पैर अड़ाने
लेकिन यह बात मत भूलो
ये बच्चे किसी ना किसी के हैं
जिन्हें या तो कहीं से अगवा किया गया है
या मां-बाप की डांट-फटकार के कारण
घर से भागकर बाहर निकल गए हैं
और, फिर अपराधी गिरोहों के चंगुल में फंस गए हैं।
जहां से निकल भागना इतना आसान नहीं।
दिन में लड़कियां गाना गा-बजाकर
या तमाशे दिखाकर पैसे मांगती है, तो रात में
इन्हें ऑटोवालों से लेकर छोटे-छोटे
व्यापारियों के सामने गर्म गोश्त के तौर पर
पेश किया जाता है।
और ये चाहकर भी इस दुनिया से नहीं निकल पाते।
अगर, कोई निकलना भी चाहता है
या भागकर इससे पुलिस के पास जाता है
तो वहां पर समाज में छिपे वही भेड़िए मिलते हैं।
और फिर से शुरू होता है.
प्रताड़ना का एक नया सिलसिला।
आखिर, सबको इस धंधे में हिस्सा जो मिलता है।
तो कौन रोकना चाहेगा।
ना ही सरकार ना ही गैर-सरकारी संस्थायें।
गर, ये मिट जाये
तो दूसरे रूप में यह फिर से
कुकुरमुत्तों की तरह पनप जाएगा।
क्या इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है?
क्या लाल बत्ती पर भीख मांगते बच्चे
इस देश के नागरिक नहीं है?
उन्हें अपराधी किसने बनाया है?
इस बात का जवाब,
किसी के पास है?
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