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लालू की परिवर्तन रैली!

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैंदान में राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष, लालू प्रसाद यादव आज परिवर्तन रैली कर रहे हैं। कहने के लिए इस रैली का आयोजन बिहार में नितिश कुमार की कथित भ्रष्ट और निकम्मी सरकार के खिलाफ जनता का आक्रोश दर्शाने कि लिए किया गया है। जैसा कि उदाहरण के तौर पर कुछ महीनों पहले सुशासन की सरकार ने पटना में अपनी मांगों के समर्थन में रैली कर रहे ठेके पर बहाल शिक्षकों को जमकर मारा-पीटा था, जबकि यही वे लोग हैं जिन्होंने अपने मजबूत वोट बैंक के द्वारा नितिश कुमार को फिर से बिहार में सत्ता वापसी में मदद की थी। बढ़ती महंगाई के कारण परेशान ये शिक्षक समान काम के आधार पर समान वेतन की मांगों को लेकर राज्य भर में जगह-जगह प्रदर्शन कर रहे हैं।

लालू ने वक्त की नज़ाकत को पहचानते हुए इन शिक्षकों को सत्ता में आने पर स्थायी नियुक्ति देने और अन्य मांगों पर विचार करने का आश्वासन दिया है, इसी को देखते हुए नितिश कुमार की सरकार भी बैकफुट पर आ गई है और उसने शिक्षकों के साथ उनकी मांगों के लिए वार्ता करने को कहा तथा ठेके पर नियुक्त शिक्षकों के वेतन में थोड़ी ही सही बढ़ोतरी भी कर दी थी। अब इन शिक्षकों को भी अपने वोट की कीमत पता है। इस देश में वोट बैंक क्या नहीं करवा सकता है? बिडंबना देखिए कि जब ठेके पर नियुक्ति हुई थी तो साफ प्रावधान था कि इन्हें स्थायी नियुक्ति नहीं मिलेगी, लेकिन वोट जो ना कराए, अभी तो देखना बाकि है आगे-आगे होता है क्या? एक तरफ, देश भर में शिक्षा-व्यवस्था की स्थिति चरमरा गई है और दूसरी तरफ विभिन्न राज्य सरकार ठेके पर शिक्षकों को नियुक्त करके शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन लाना चाहती है। विभिन्न राज्य सरकार मुफ्त में लैपटॉप और टेबलेट या ऐसे ही अन्य घोषणायें करती हैं, लेकिन उनका मकसद समस्याओं की जड़ तक पहुंचना या उनका हल करना नहीं है, बल्कि अपनी पार्टी के लिए वोट बैंक को पक्का करना होता है।

बिहार ही नहीं कोई भी ऐसा राज्य या केंद्रशासित प्रदेश या यहां तक कि केंद्र सरकार का कोई विभाग बता दीजिए जहां बगैर घूस या चढ़ा चढ़ाए आपका कोई भी काम हो जाता है। उदाहरण के लिए किसी सरकारी विभाग को ले लीजिए। हर सरकारी संस्थान अपने बोझ तले दबा जा रहा है, लेकिन जैसे ही आपने चांदी के चम्मच का दर्शन संबधित विभागीय कर्मचारियों को कराया तो आपका काम पल भर में संपन्न हो जाता है वरना आपको हर छोटे काम के लिए धक्के खाने पड़ते हैं और आपसे हर बार किसी ना किसी कमी का बहाना बना कर उसे टालने का प्रयास किया जाता है।

खैर, हम बात कर रहे थे लालू की परिवर्तन रैली की। इस रैली से देश या बिहार को कोई लाभ हो या ना हो, लेकिन लालू अपने दोनों बेटों को राजनीति में स्थापित करने में जरूर कामयब हो जायेंगे। पहले उन्होंने जिसे चाहा उसे राजनीति में उतार दिया, लेकिन तब और अब में बहुत फर्क हो गया है और गंगा में काफी सारा पानी बह चुका है। परिस्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। इनके स्वभाव के कारण जो लोग इनकी चाटुकारिता करके राजनीति में आए थे, वे भी अब इनका साथ छोड़ चुके हैं। नहीं तो परिवर्तन रैली के लिए लालू प्रसाद यादव को पटना की तंग गलियों में आधी रात को घूमना नहीं पड़ता।

मंडल-कमंडल की राजनीति के बाद लालू प्रसाद यादव को बिहार की जनता ने एक खूबसूरत मौका दिया था। पूरे पंद्रह वर्ष का मौका, लेकिन अपने ही गरूर में वे इसे भुला बैठे। सदियों से दबी-कुचली पिछड़ी और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जनता को आर्थिक आजादी देने और उत्थान करने के बजाए वे महज राजनीति की नौटंकी करते रहे और हमेशा से इस फिक्र में दुबले होते रहे कि कहीं कोई और ना उभर जाए और उन्हें चुनौती दे बैठे। इसी का परिणाम हुआ कि उनके इर्द-गिर्द चाटुकार जमा होते गए।

90 के दशक में एक समय तो ऐसा था कि लालू जिसे चाहते थे, चुनावों में उसी की जीत होती थी, अब ये हेरा-फेरी करके होती रही हो ये अलग बात है। चाहे वह लालू को पान खिलाने वाला हो या पार्टी के लिए विभिन्न रैलियों में पंडाल लगाने वाला या उन्हें नियमित तौर पर मछली पहुंचाने वाला सभी विधादक या विधानपार्षद बन गया था। यहां तक कि देश का प्रधानमंत्री – इंद्र कुमार गुजराल भी पटना से राज्यसभा के लिए निर्वाचित होकर आए थे। ऐसे में लालू की राष्ट्रीय राजनीति में धमक को आसानी से कोई भी समझ सकता है।

लेकिन वक्त का पहिया ऐसा घूमा कि जिस राज्य की जनता ने उन्हें सर-माथे पर बिठाया उसी ने बड़े बेआबरू करके गद्दी से उतार भी दिया, जबकि एक वक्त ऐसा कहा जाता था कि ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू तब तक रहेगा बिहार में लालू’ लेकिन समोसे में आलू है और रहेगा। जबकि लालू अपनी करनी को भुगत रहे हैं। अगर कथित सुशासन की गलतियों के कारण वे फिर से सत्ता में आते हैं तो इसमें बिहार का कुछ भला नहीं होने वाला है।

लालू प्रसाद यादव ने जब देखा कि चारा घोटाला में वे जेल जा सकते हैं तो अपनी अनपढ़ पत्नी को बिहार की गद्दी पर बिठा दिया और खुद जेल से सत्ता की बागडोर संभाले रखी। उन्हें किसी पर भरोसा नहीं था। इसके अलावा जब उनकी पार्टी को कम सीट मिला तो राबड़ी को सत्ता में बनाए रखने के लिए बिहार का बंटवारा (झारखंड गठन का प्रस्ताव पारित करके झारखंड मुक्ति मोर्चा के मुखिया शीबू सोरेन से सौदेबाजी करके उसके विधायकों से समर्थन लिया) तक कर दिया। जबकि इसी लालू प्रसाद यादव ने कभी कहा था कि बिहार का बंटवारा मेरी लाश पर ही होगा? यानि अपने लाभ के लिए किसी को नहीं बख्शा और अब जब राज्य में सत्ता की बागडोर हाथ से निकल चुकी है। लगातार दो कार्यकाल में जनता ने राजद को अपना समर्थन नहीं दिया है तो ऐसे में अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं लालू प्रसाद यादव।

लालू यादव के लिए दूसरी परेशानी नितिश कुमार और कांग्रेस पार्टी के बीच अंदरुनी तौर पर हो रही बातचीत को लेकर भी बढ़ गई है। आगामी चुनावों में कांग्रेस पार्टी और नितिश कुमार की जनता दल युनाईटेड के बीच खिचड़ी पकने को लेकर लालू के रातों की नींद उड़ चुकी है। इसका कारण है कि भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ेगी और ऐसे में नितिश कुमार अगर कांग्रेस के साथ होते हैं तो लालू कहीं के नहीं रहेंगे। इन्हीं सब मुद्दों को देखते हुए लालू के लिए अपनी ताकत आजमाइश की जरूरत थी और वे केंद्र में सोनिया गांधी को दिखाना चाहते हैं कि बिहार में अभी भी उनकी मजबूत पकड़ है। अब दखना बाकि है कि ऊंट किस करवट बैठता है? वैसे भी राजनीति में ना तो कोई स्थाई दोस्त होता है और ना ही कोई स्थाई दुश्मन। एक समय था जब यादव ने कांग्रेस को बैकफुट पर ला दिया था, लेकिन विभिन्न घोटालों में फंसे होने के कारण उन्हें केंद्रीय जांच ब्यूरो का सामना करना पड़ रहा है जिससे वे हमेशा सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी की प्रशंसा करते हैं और यह सिर्फ निगाहों में बने रहने के लिए की गई चाटुकारिता के अलावा कुछ नहीं है।

बिहार में नितिश कुमार, लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान के बीच मुस्लिम और पिछड़ी एवं दलित जातियों के वोटों को पाने के लिए अभी से जंग शुरू हो चुकी है।

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