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“जवानों की शहादत पर चुप क्यों हैं राजनेता और मानवाधिकार वाले?”

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर के बेमिना स्थित पुलिस पब्लिक स्कूल के ग्राउंड में अन्य दिनों की भांति कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे और वहां स्थित सुरक्षा बल के जवान अपने कैंप में अचानक होने वाली अनहोनी से अनजान, क्योंकि पिछले तीन सालों में जम्मू-कश्मीर में कोई फियादीन हमला नहीं हुआ था। अरे ये क्या! सुबह के उस समय 10.45 हो रहे थे और आतंकी क्रिकेट किट के साथ मैंदान में दाखिल हुए थे जिससे किसी भी सुरक्षाकर्मी ने उन पर ध्यान नहीं दिया यानि कि उनकी तलाशी नहीं ली गई। अमूमन यहां शांति रहती है और यह सुरक्षित क्षेत्रों में माना जाता रहा है। लेकिन क्रिकेट किट के साथ मैंदान में प्रवेश करने वाले आतंकियों ने कुछ देर वहां पहले से खेल रहे आतंकियों के साथ क्रिकेट खेला और फिर अपनी किट से स्वचालित एके47 राइफल निकाली फिर हथगोले फेंकने शुरू कर दिए। अचानक हुए इस हमले से सुरक्षाबल सकते में आ गए। वे इसके लिए कदापि तैयार नहीं थे। गोलियों की लगातार आवाज़ें सुनकर 73वीं बटालियिन के सुरक्षा बल स्कूल परिसर में भागे। आतंकियों ने उन पर भी गोलियों की बौछार कर दी।

इसके परिणामस्वरूप 5 जवान शहीद हो गए और सुरक्षा बलों की जवाबी कार्यवायी में 2 आतंकी मारे गए जबकि दो आतंकी इस बीच भागने में सफल रहे। शहीद होने वालों में एएसआई – एबी सिंह (मध्यप्रदेश), कांस्टेबल – ओमप्रकाश (मध्यप्रदेश) , कांस्टेबल सुभाष (झारखंड – हजारीबाग) तथा कांस्टेबल – सतीसा (कर्नाटक), कांस्टेबल – पेरुमल (तमिलनाडु) हैं। इन सभी जवानों की शहादत को पूरा देश नमन करता है और परिवारवालों को दुख की इस घड़ी में हार्दिक संवेदना प्रकट करता है।

सवाल यहां यह उठता है कि जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस, पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, सीपीएम और अलगाववादी संगठन आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट को हटाने की मांग करते रहे हैं। अफजल गुरू के शव को उनके परिवार जनों को सौंपने की मांग को लेकर विपक्षी दल की नेता महबूबा मुफ्ती और नेशनल कांफ्रेंस के नेता व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला विधानसभा में हंगामा करते हैं। इसके पीछे मुस्लिम कट्टरपंथियों को खुश करना और अपने वोट बैंक को आश्वस्त करना एक प्रमुख कारण हैं। आतंकियों के मारे जाने पर विभिन्न मानवाधिकार कार्यकर्ता अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं, लेकिन वही मानवाधिकार कार्यकर्ता तब कहां गायब हो जाते हैं जब किसी सुरक्षा बल के जवान की मौत आतंकियों के द्वारा गोली मारने को लेकर होती है।

हाल ही के दिनों में जम्मू-कश्मीर के पुलिस आयुक्त ने सुरक्षा बलों को वहां लाठियों से ड्यूटी निभाने का आदेश जारी किया था। आखिर, ऐसा क्यों किया गया था। गौरतलब है कि आतंकग्रस्त हंदबाड़ा में लाठियों से ड्यूटी निभा रहे सुरक्षा बल के दो जवानों – आजाद चंद और संतोष सिंह को आतंकियों ने प्वाइंट ब्लैंक रेंज से गोली मार कर शहीद कर दिया था। क्या इस हत्या के लिए जम्मू-कश्मीर के विभिन्न दलों के ऐसे नेता को जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए, जो सुरक्षा बलों को दिए गए विशेष अधिकार अफस्पा के हटाने की मांग करते रहे हैं, और जिसके कारण उन्हें लाठियों से अपनी ड्यूटी करनी पड़ी। क्या इसके लिए वहां के पुलिस आयुक्त को दोषी नहीं ठहराया जा सकता?

इसमें किसी देशवासी को कोई शक नहीं कि पाकिस्तान हमारे देश में आतंकियों को भेजने व हर तरह की मदद मुहैया कराने का काम कर रहा है। इस काम में उसे चीन से भी मदद मिलती है और कुछ देश के उन जयचंदों से भी जिनकी रोजी-रोटी इसी से चलती है।

यहां तक कि पाकिस्तान ने एक नई चाल चलते हुए अब प्रद्रशनकारियों के हाथों में पत्थर थमा दिए हैं और इस काम के लिए उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है तथा हर महीने 5 हजार से 10 हजार की राशि। यह राशि इस पर निर्भर करता है कि कितने सुरक्षा बलों के जवान घायल हुए।

एक तरफ जम्मू-कश्मीर की सरकार संसदीय तरीकों से चुनाव जीते हुए सरपंचों को सुरक्षा मुहैया नहीं करवा रही है। इससे वह पाकिस्तानियों और कट्टरपंथियों को संदेश देने का काम कर रही है कि सबकुछ ठीक नहीं है। जब तक जम्मू-कश्मीर से धारा 370 नहीं हटाई जाएगी तब तक ये कठमुल्ले ठीक नहीं होने वाले।

क्या कभी आतंकियों की मौत पर आंसू बहाने वाले कठमुल्ले या मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने सुरक्षा बलों की मौत पर आंसू बहाए हैं। फिर तो इनकी दुकान ही बंद हो जाएगी। वैसे भी इन्हें इसी कारण से विदेशों से पैसे मिलते हैं। सबसे पहले तो ऐसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की जांच होनी चाहिए कि उनके द्वारा चलाए जा रहे एनजीओ को किन देशों से और किन रास्तों से पैसे मिलते हैं और किस कारण से। सच्चाई देश की जनता के सामने आ जाएगी।

शहीदों के मरने पर घड़ियाली आंसू बहाने वाली महबूबा मुफ्ती उसी रुबिया सईद की बहन है जिसको आतंकियों ने अगवा कर लिया था और उनके पिता – मुफ्ती मोहम्मद सईद जो तब देश के गृहमंत्री थे और उन्होंने अपनी बेटी को छुड़ाने के लिए कई खूंखार आतंकियों को छोड़ने का फैसला किया था। तो ऐसे गद्दारों से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं और उसी के बाद से आतंकियों ने भारतीय विमान आईसी 184 का अपहरण करने की योजना बनाई और फिर वे 4 खूंखार आतंकियों को छुड़ाने में सफल भी रहे, जिसमें से भारत के सबसे मोस्ट वांटेड आतंकियों में से एक हाफिज सईद भी है, जिसने मुंबई में आतंकी हमले को अंजाम दिया और आज भी पाकिस्तान से अपनी आतंकी गतिविधियों को संचालित कर रहा है। पाकिस्तान की इंटेलीजेंस एजेंसी – आईएसआई इसमें उसका खुलकर मदद करती है और वहां के राजनीतिक दल कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए इसे चंदे व अपना नैतिक समर्थन खुलकर देते हैं।

अभी तो अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज अगले साल से वापसी करने वाली है और पाकिस्तान वहां अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। वहां भारत के कई हजार करोड़ रुपये मूलभूत परियोजनाओं में लगे हुए हैं। उन सबका कया होगा? वहां काम कर रहे भारतीयों के निवेश और सुरक्षा पर सरकार को नए सिरे से गंभीरता से सोचने की जरूरत है। जबकि दूसरी तरफ पाकिस्तान और चीन मिलकर भारत को चारों तरफ से घेरने में लगे हैं।

अफस्पा कानून हटाने की मांग करने वाले नेतागण जैमर लगे वाहनों में घूमते हैं और ऐसे में उनकी सुरक्षा में जवानों की कई टुकड़ियों लगी होती हैं। यहां तक कि पूर्व पार्षदों को भी सुरक्षा मिली हुई है।

लाख टके का तो सवाल यहां यह है कि जब वहां शांति स्थापित नहीं हो सकी है और सैन्य बल अपनी मर्जी से नागरिक क्षेत्रों में तैनात नहीं हैं तो फिर उन्हें आतंकियों के हाथों मरने के लिए क्यों विवश किया जाता है? क्या इस तरह से कदमों से सुरक्षा बलों के जवानों का मनोबल नहीं गिरता है। क्या इससे आतंकियों को एक संदेश नहीं जाता है। हम पूरी दुनिया को क्या संदेश देना चाहते हैं? सवाल तो कई हैं लेकिन इनके जवाब मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और आतंकियों की हिमायत करने वाले नेताओं से मिलने की अपेक्षा करना बेकार ही लगता है?

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