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मेरा गांव, हम सबका गांव

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

इतनी तरक्कियों के बावजूद गांव अब भी गांव है।

अब भी लोगों में उतना अपनापन तो नहीं लेकिन हां, अपनापन बरकरार है।

अब भी लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में पहले जैसा तो ना सही, लेकिन भाग लेते हैं।

क्योंकि पहले की तरह लोगों के पास अब उतना समय नहीं रहा।

अब भी गांव वैसा ही है, जैसा पहले था।

थोड़ा-बहुत परिवर्तन तो होते रहता है।

हां, इस बीच गांव में कुछ सड़कें, छोटे अस्पताल, स्कूल जरूर बन गई है।

टूटी-फूटी दीवारें ही सही। भले ही स्कूलों से शिक्षक गायब रहते हों।

बच्चों को मिड-डे मिल कभी-कभार ही सही मिलता तो है।

अस्पतालों से डॉक्टर गायब रहते हों,

लेकिन दवा के नाम पर सरकारी खजाना खाली तो होता है ना?

सड़कें भले ही उबड़-खाबड़ हों, लेकिन गाड़ियां तो दौड़ती है ना।

पहले तो ये सब भी नहीं था।

इस बीच, गबरू के पापा की मौत हो गई।

उनकी आंखों में सपना था कि वे अपने गांव में रेल देखेंगे।

लेकिन सपने-सपने होते हैं, ये उन्हें कौन समझाये।

नेताओं का क्या?

चुनावों के समय वे घोषणा कर जाते हैं।

और भोले-भाले लोग इन घोषणाओं पर विश्वास भी कर लेते हैं।

और फिर चुनाव होते ही सारे घोषणा/ वादे धरे के धरे रह जाते हैं।

अगले चुनावों तक।

इधर, गांव के लोगों के पास नई-नई गाड़ियां आ गई हैं।

भले ही सड़कों का जो हाल है।

अब भी गांव में कोई बीमार पड़ता है,

तो उसे तत्काल कोई चिकित्सा सुविधा तो नहीं मिलती।

लेकिन पहले से सुविधायें जरूर बेहतर हुई हैं।।

आखिर, क्यों ना हो?

लोगों के पास कमाई का जरिया पहले से ज्यादा है।

गांव में, कुछ के बच्चे बाहर शहरों में पढ़ रहे हैं।

तो कोई परिवार सहित बाहर शहरों/महानगरों में रह रहा है।

गांव में अब वही रहता है जिसे बाहर या तो कोई रोजगार नहीं मिल रहा।

या तो उसके पास पर्याप्त खेती है या वह जाना नहीं चाहता।

वैसे गांव में भी आधुनिक तकनीक का प्रयोग करके आप

सब-सुख-सुविधा जुटा सकते हैं।

गांव से बाहर जो लोग गए हैं उन्हें

बस एक ही बात हर वक्त

अखटती है।

कि शहरों में लोग एक-दूसरे से सिर्फ सप्ताहांत में ही मिल पाते हैं।

गांव में थे, तो जब चैन मिलता था

एक-दूसरे के पास चले जाते थे

और अपना दुखड़ा रो लेते थे।

यहां शहरों में

किससे अपना सुख-दुख कहे कोई।

किसी के पास इतना समय भी तो नहीं।

कोई रात की ड्यूटी करके आया है।

तो कोई सुबह ड्यूटी बजाने जा रहा है,

तो कोई-कोई ऐसा भी है कि पति-पत्नी दोनों ही ड्यूटी बजा रहे हैं।।

शहर में जो रहना है उसे।

गांव की तरह यहां अपना घर तो हर किसी के पास नहीं है ना?

महीना पूरा हुआ नहीं कि मकान-मालिक की चिक-चिक सुनने को मिलने लगती है।

टूटे-फूटे फूस के घर में ही सही गांव में जो आनंद मिलता था।

वो आज वातानुकूलित कमरों में भी नहीं मिलता।

शहर में रहते हुए हंसने को तरस गए हैं।

हर समय ऐसा लगता है कि जैसे चेहरे पर बारह बज रहे हों।

जहां कहीं काम कर रहे हैं वहीं टार्गेट पूरा करने का टेंशन बना रहता है।

वरना पूरे पैसे मिलेंगे नहीं और फिर बच्चों की स्कूल फीस कैसे भरेगी।

इसकी भी चिंता रहती है।

कैसे मां-पिताजी की पूरी दवा आएगी, ये भी तो हमें ही सोचना है।

गांव में तो लोग उधारी भी दे देते थे।

कहते थे, फलांने का लड़का/लड़की है।

समय पर पैसा दे जाता रहा है।

यहां तो एक बार पूरा पैसा लेकर नहीं जाओ,

तो बस वापस लौटना पड़ता है।

गांव औऱ शहरों का यही तो मूल फर्क है।

गांव में कोई भी सामान कहीं पड़ा रहता था।

मजाल है कि कोई उठा ले।

सब एक-दूसरे से मिलकर रहा करते थे।

आपसी भाईचारे की मिशाल थी।

और यहां शहरों में तो बस आंख बंद और डब्बा गायब।

किसी को किसी से कोई मतलब नहीं।

सारे के सारे मतलबी और अहसानफरामोश हैं।

सर दर्द से फटा जा रहा है। लेकिन किससे कहें।

कौन है यहां सुनने वाला। खुद से दवा लाओ।

खुद से सारा इंतजाम करो और फिर अपने काम पर जाओ।

नहीं तो बस पड़े रहो। मर भी जाओगे तो कोई पूछेगा नहीं।

यहां तो हर दिन दुर्घटना में लोगों की जानें चली जाती है।

लेकिन लोग उसके बगल से गुजर जाते हैं।

कोई मुड़कर देखता भी नहीं कि कौन मरा है।

बस सबको अपने से मतलब है।

फिर भी लोग हैं कि गांव छोड़कर शहरों की तरफ अंधाधुंध भागे/दौड़े चले आ रहे हैं।

पूछने पर कहते हैं कि गांव में अब रखा क्या है?

सारी खेत खराब हो गई।

खेतों को सिंचाई के लिए पानी नहीं, बिजली नहीं, मजदूर भी तो नहीं मिल पाते।

सारे तो अब शहरों की ओर भाग आए हैं।

वहां की आवोहवा भी पहले की तरह रही नहीं।

धर्म और जाति के ठेकेदारों ने वहां भी जहर घोल दिया।

यहां मेहनत करो तो कम से कम दो वक्त की रोटी मिल तो जाती है।

हम आसमान की ओर देखते रह गए। आखिर, क्यों ना तर्क में दम जो था।

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