Menu
blogid : 10952 postid : 176

राजनाथ सिंह भाजपा के अगले अध्यक्ष होंगे?

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
  • 168 Posts
  • 108 Comments

हरेश कुमार

नितिन गडकरी की कंपनी पूर्ति के भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोपों के कारण भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कांग्रेस के साथ बहस करते समय ज्यादा आक्रामक नहीं हो पाती थी। हालांकि आरएसएस के दबाव के कारण गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाया जाना तय माना जा रहा था, लेकिन बदलती परिस्थितियों के कारण जब पार्टी में 2014 के लोकसभा चुनावी संभावनाओं को देखते हुए लालकृष्ण आडवाणी के इशारे पर जसवंत सिन्हा ने गडकरी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए नामांकन की हामी भरी तो पार्टी को एक बार फिर से सोचना पड़ा और फिर राजनाथ सिंह के नाम पर सर्वसम्मति बनी। इस सारे प्रकरण से फिलहाल पार्टी में उपरी शांति दिख रही है, लेकिन वास्तविकता में ऐसा है नहीं। चुनावों के बाद एक बार फिर से इसमें बदलाव होना तय है।

अपने पिछले कार्यकाल में राजनाथ सिंह सफल नहीं हुए थे औऱ उनके अध्यक्ष रहते कई राज्यों में बगाबत भी होनी शुरू हो गई थी जिसका वे सही तरीके से हल नहीं निकाल पाए थे। वे खुद गाजियाबाद से सांसद हैं जो एक राजपूत मतदाता बहुल क्षेत्र है। इस देश में जाति-धर्म एक महत्वपूर्ण फैक्टर है और इससे हम इंकार नहीं सकते। यह दर्शाता है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने वाले शख्स भी अपने लिए सुरक्षित सीट की तलाश में रहते हैं और यह सारी पार्टियों में बीमारी की तरह घिर गई है। शायद ही कोई नेता हो जो वर्तमान में देश के किसी भी भाग से चुनाव लड़कर जीतने में सक्षम हो।

खैर, हम राजनाथ सिंह के उज्ज्वल चुनावी भविष्य की कामना करते हैं। और दुआ करते हैं कि देश में स्वस्थ राजनीति का विस्तार हो। राजनाथ सिंह ने अपने पहले कार्यकाल में अपने पुत्र, पंकज सिंह को स्थापित करने में काफी दिलचस्पी ली थी लेकिन पार्टी के दबाव के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए थे।

2014 के लोकसभा चुनाव में सभी पार्टियों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है और कोई भी पार्टी अभी से ऐसा दावा नहीं कर सकती कि वो चुनावों के लिए तैयार है। हर पार्टी में भीतरघात करने वालों की कमी नहीं है और जिस किसी को पार्टी से टिकट नहीं मिलता है वो बगावत कर बैठता है। यानि कि किसी को भी किसी भी पार्टी से लगाव नहीं है। लगाव है तो सिर्फ अपने टिकट से चाहे वो किसी भी दल से मिले। इससे फर्क नहीं पड़ता। चुनावों में पार्टी का वोट, जातिगत समीकरणों का वोट और फिर प्रांत का वोट तथा क्षेत्र में खड़े अन्य प्रत्याशियों के खिलाफ जनता का मत निर्णायक भूमिका निभाता है। अधिकांश बड़े नेता अपने लिए इन सभी चीजों को पहले देखते हैं औऱ हर पार्टी दूसरी पार्टी के बड़े नेता चाहे वो राष्ट्रीय और राज्य स्तर के नेता हों, के लिए सुरक्षित सीट देने मं् संकोच नहीं करता है। चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह। अंदर से सारे मिले होते हैं। आप देखेंगे कि चुनावों में एक-दूसरे पर आरोप लगाते समय हर मर्यादा को ताक पर रखने वाले नेता रात को पार्टी में एक-दूसरे नेता के साथ गलबहियां करते मिल जायेंगे। तब आपको सोचना पड़ता है कि हम मुफ्त में ही अपना खून गरम कर रहे थे।

देश में कितनी सीट सुरक्षित है जो विभिन्न पिछड़ी और अनुसूचित जाति औऱ जनजातियों के नेताओं के लिए है लेकिन उस सीट से जीतने वाले किसी भी प्रत्याशी के कार्यों के बारे में आप निष्पक्ष पता करिए तो आपको मालूम होगा कि सभी ने अपने परिवार, अपने समर्थकों को छोड़कर किसी का विकास करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली है। कई तो ऐसा कहते मिल जायेंगे कि आपने हमें जब वोट ही नहीं दिया तो फिर विकास कैसा? इतने निर्लज्ज होते हैं ये।
यही देश है जिसके शुरुआती दिनों के सांसद और विधायक फटेहाली की जिंदगी जी रहे हैं क्योंकि उन्होंने अपने कार्यकाल में कोई घोटाला नहीं किया। कोई कमीशन नहीं लिया और एक आज का दिन है। पहले दिन से ही तस्वीर बनने लगती है कि कितना कमीशन किस योजना में लेना है और उसे किसे देना है।

चाल-चरित्र और चेहरा में अलग बताने वाली पार्टी को भी लोगों ने देखा है कि किस तरह से इसके कथनी और करनी में अन्य पार्टियों की तरह ही समानता नहीं है। चुनावी वादें और उसे पूरा करने में किसी पार्टी को कोई दिलचस्पी नहीं है। सब जनता को बवकूफ बनाने में अपना हित समझते हैं और आजादी से लेकर अभी तक यही कर रहे हैं।

यह लोकतंत्र का स्याह पक्ष है कि लोकतंत्र में बहुमत की आवाज सुनी जाती है, जैसा कि लोकतंत्र के पक्षधर दावा करते हैं, लेकिन होता ठीक इसका उल्टा है। आज भी गरीबों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की तरह ही है। कोई उसकी आवाज़ सुनने वाला नहीं है। वोटों की खरीदारी की जाती है इस देश में। यहां तक कि अवैध कॉलोनियों को बढ़ावा दिया जाता है। भ्रष्टाचार पर तब तक आंखें मूंदी जाती है जब तक कि वह आपका समर्थक रहता है और जैसे ही किसी ने समर्थन देना बंद किया या पार्टी नेतृत्व को चुनौती पेश की या किसी अन्य विपक्षी पार्टी के साथ सुर मिलाया तो फिर उसकी खैर नहीं। सारी सरकारी जांच एजेंसियों को उसके खिलाफ सबूत एकत्र करने में लगा दिया जाता है। और फिर नतीजा या तो बंदा चुप हो जाता है या फिर उसकी बोलती ही बंद कर दी जाती है। कहने का अर्थ है कि इस देश में अभी तक स्वस्थ लोकतंत्र का विकास नहीं हुआ है। और होगा भी कैसे। जब तक देश में परिवारवाद रहेगा, जब तक भ्रष्टचार को सरकारी संरक्षण दिया जाएगा, तब तक देश में सच्चा लोकतंत्र कैसे आएगा। इस सब पर हम सबको विचार करने की जरूरत है। कोई दूसरे ग्रह का प्राणी हमारी समस्याओं को सुलझाने के लिए नहीं आएगा। हमें अपनी समस्यायें खुद सुलझानी होगी। तो आइये लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए हम सब मिलकर एक-दूसरे के साथ कंधा से कंधा मिलकार देशहित में काम करें। हमारी सोच भले ही अलग हो, हम भले ही अलग पार्टी को पसंद करते हों, लेकिन हैं तो हम भारतीय ही। यह हम सबका पुनीत कर्तव्य है कि हम सब देश को आगे बढ़ाने के लिए राजनीतिज्ञों के गलत बहकावे में ना आकर चीजों को यथार्थ में पहचानें और खुद परखें। हम खुद से सवाल करें कि क्या कारण है कि आजादी के 65 सालों के बाद भी हम गरीब ही हैं और हमारे पास आज भी जीवन के लिए जरूरी मूलभूत सुविधायें मयस्सर नहीं है। क्यों कुछ ही लोगों या जमात के पास हर सुविधा मुहैया है?

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply