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अमन की आशा को धिक्कार है, सौ बार?

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हरेश कुमार

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी कविता के माध्यम से देशवासियों को संदेश देते हुए लिखा था – क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो। इन पंक्तियों को लिखने का हमारा एकमात्र उद्देश्य पाकिस्तानियों को उसके घर में घुसकर मारना है, उसे ईंट का जवाब पत्थर से देना है कि देखो कायरों तू भूल गया 1971 की पराजय, इतना बड़ा समर्पण विश्व की किसी भी सेना ने नहीं किया था।

जब हमारी सेना लाहौर में प्रवेश कर गई थी, तो तुम्हारे सैनिक कच्छा-बनियान भी छोड़कर नंग-धड़ंग भागे थे और फिर भी तुम अपनी शेखी बघारने से बाज नहीं आते। तुमसे कैसी दोस्ती, कैसा प्यार। पुरानी कहावत है कि सांप को पोसने पर वह आपको ही काटता है और उसी के तर्ज पर तुमने बार-बार हमारी भारत माता और इसके सैनिकों को चोट पहुंचाई है।

तुम पाकिस्तानी बार-बर झूठ बोलते हो। तुमने करगिल युद्ध में भी हमारे कैप्टन, सौरभ कालिया और उनके अन्य साथियों का अंग-भंग किया था और हमारी दोगली भारत सरकार ने एक बार भी इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना मुनासिब नहीं समझा, वोटबैंक का मुद्दा होता तो ना जाने कितनी बार संसद ठप्प हो जाता। दिवंगत कैप्टन सौरभ कालिया के पिताजी के आगे आने पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में शायद यह मामला चले और इस तरह के नृशंस अपराध करने वालों को उसके किए की सजा मिल सके। यही हमारी आशा है।

भारत सरकार से तो हम सभी बेहद दुखी हैं, देश के नागरिकों का गुस्सा वर्तमान सत्ताधारी पार्टी से इस कारण से और ज्यादा ही बढ़ता जा रहा है। जो देश अपने सैनिकों का सम्मान नहीं करती है, इतिहास उसे कभी माफ नहीं करता।

कुछ दिनों पहले पाकिस्तान के आंतरिक मामलों के मंत्री, रहमान मलिक का यह बयान कि कैप्टन सौरभ कालिया को पाकिस्तानी सैनिकों ने नहीं मारा-पीटा, वे मौसम का शिकार हुए थे। यह एक बड़ा जोक ही तो था। जो देश के माथे पर कलंक की तरह चोट करके चला गया।

अंग्रेजों ने जाने के बाद इस देश के दो टुकड़े – भारत और पाकिस्तान करके ऐसा जख्म दिया जो कभी ना भरने वाला वह नासूर बन गया है और समय-समय पर यह और गहरा होता जाता है। कहने को तो अंग्रेज इस देश से चले गए, लेकिन छोड़ गए अपने कुछ ऐसे मानसपुत्र जो इस महाद्वीप की सत्ता में तो रहे ही, उन्होंने भारत और पाकिस्तान की तरक्की को छोड़कर इसे जाति-धर्म-संप्रदाय की ऐसी आग में झोंक दिया जो हर समय सुलगता ही रहता है और इस क्रम में कितने ही निर्दोष लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है और आगे ना जाने अभी कितनों को धोना पड़ेगा।

पाकिस्तान ने बंटवारे के तुरंत बाद, धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर पर अपना दावा ठोंकते हुए उस पर आक्रमण कर दिया तब वहां के तत्कालीन राजा हरिसिंह ने इसका विलय भारत में करते हुए भारत सरकार की सहायता मांगी और फिर पाकिस्तान के आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब भारतीय सेनाओं ने दिया।

लेकिन पाकिस्तान की सरकार जब-जब अस्थिर हुई या भ्रष्टाचार के किसी मुद्दे से वहां के नागरिक उद्वेलित हुए या रोजी-रोटी का सवाल उठाया तो वहां की सत्ताधारी पार्टी ने कश्मीर मुद्दे को एक बार फिर से सुलगाना शुरू कर दिया। और इसी का नतीजा है 1947-48 में कबाइलियों के भेष में जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण, फिर 1962, 1965, 1971 जिसके फलस्वरूप बांग्लादेश नामक नए देश का उदय हुआ और पाकिस्तान के 92 हजार सैनिकों को भारतीय सैनिकों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा।

जनरल नियाजी के नेतृत्व में पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत के तत्कालीन सैनिक नेतृत्व के सामने आत्मसमर्पण किया। लेकिन भारतीय सेना ने अपने विश्वबंधुत्व और मानवीयता का परिचय देते हुए सभी पाकिस्तानी सेनाओं के साथ ना सिर्फ अच्छा व्यवहार किया बल्कि अंतरराष्ट्रीय सद्भाव का परिचय देते हुए सभी को बाइज्जत बरी कर दिया।

जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में भारत के पहले प्रधानमंत्री – पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाकर कुछ गलतियां की जिसकी वजह से यह मुद्दा आज भी अनसुलझा रह गया है। यहां तक कि पाकिस्तान के कब्जे में इसका कुछ हिस्सा है जो इसे आजाद कश्मीर के नाम से बुलाता है और इसी का कुछ हिस्सा उसने चीन को दे दिया है।

चीन के साथ पाकिस्तान की गलबहियां जगजाहिर है और भारत 1962 के युद्ध को कभी नहीं भूलने वाला जो चीन और वहां की कम्युनिस्ट सत्ताधारी पार्टी ने हिंदी-चीनी,भाई-भाई की आड़ लेकर दिया था। उस समय भी पंडित नेहरू ने एक बड़ी भारी गलती कि थी। उन्होंने वायुसेना को हमले का आदेश नहीं दिया, नहीं तो युद्ध का परिणाम कुछ और होना तय था। भारत के एक साल बाद चीन आजाद हुआ था और उसके पास भी कोई आधुनिक सैन्य सुविधा उपलब्ध नहीं था।

1965 में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने सेना को खुली छूट दी और पाकिस्तानी सैनिकों के दांत खट्टे करने में वे मोर्चे पर सैनिकों का उत्साह बढ़ाने में आगे रहे। उन्होंने उस समय जय-जवान, जय किसान को नारा दिया था। युद्ध के बाद, सोवियत संघ के बुलावे पर पाकिस्तान के साथ समझौते की मेज पर ही उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु आज भी रहस्त बनी हुई है। उनका इलाज कर रहे डॉक्टर जो इस रहस्य से पर्दा उठा सकते थे, कि एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई औऱ यह रहस्य और गहराता चला गया।

भारत के नागरिकों को आज भी दो मौतों के राज का पता लगना बाकि है जिस पर रहस्य बरकरार है। पहला – नेताजी सुभाष चंद्र बोस और दूसरा लालबहादुर शास्त्री। अगर नेताजी या सरदार पटेल के हाथों में इस देश का नेतृत्व रहता तो शायद यह दिन नहीं देखना पड़ता।

हालांकि, पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण के लिए बेशक नए कल-कारखानों की नींव डाली, बड़े-बड़े बांध बनाए। कई शिक्षण संस्थानों को खोला, लेकिन कश्मीर मुद्दा को संयुक्त राष्ट्र में ले जाना और 1962 में चीन के साथ लड़ाई में वायुसेना को इजाजत नहीं देना उनकी दो गलती थी। 1962 की हार से तो वे कभी उबर नहीं सके और दो साल में ही उनकी मृत्यु हो गई।

1971 में तो भारत और पाकिस्तान की लड़ाई के बीच तीसरे विश्व युद्ध का खतरा तक उत्पन्न हो गया था। जब अमेरिकी सेना ने अपने मित्र पाकिस्तान की सहायता के लिए अपना दूसरा पोत हिंद महासागर में भेज दिया था, लेकिन उससे पहले ही भारत के मित्र, तत्कालीन सोवियत रूस ने अपना तीसरा पोत हिंद महासागर में उतार दिया था और अमेरिका के सारे युद्धपोत उसके रडार की जद में थे। ऐसा पहली बार हुआ कि अमेरिकी कमांडर को पेंटागन को संदेश देना पड़ा – वी आर वेरी लेट सर। इस तरह से अमेरिकी युद्धपोत को पीछे हटना पड़ा और तीसरा विश्वयुद्ध होते-होते बचा।

जिस बांग्लादेश के निर्माण में भारतीय प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी ने सभी स्तर पर सहयोग किया। उसी बांग्लादेश के बांग्लादेश राइफल्स, भारतीय सीमा सुरक्षा बलों पर गोलीबारी करता रहता है। और हमारे जवानों की जान लेता रहता है। इस गोलीबारी का एकमात्र मकसद अपने पाकिस्तानी आकाओं की मदद करते हुए आंतकवादियों और तस्करों की घुसपैठ कराना होता है।

शेख हसीना के प्रधानमंत्री रहते तो इस पर थोड़ा काबू रहता है, लेकिन खालिदा जिया के प्रधानमंत्री बनते ही फिर से सीमा पर तनाव बनता चला जाता है।

उल्लेखनीय है कि बांग्लादेश के निर्माण के बाद से ही पाकिस्तानी इसे भूल नहीं सका हैं और उसने शेख हसीना के पिताजी तथा बांग्लादेश के निर्माता, शेख मुजीबुर्रहमान के परिवार के सभी सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया था, लेकिन शेख हसीना चूंकि उस समय दिल्ली में रहकर पढ़ाई कर रही थी, इसलिए वे बच गईं। इस कांड को बांग्लादेश के तत्कालीन सेना के उच्च पदाधिकारी अपने पाकिस्तानी आकाओं और वहां की जासूसी संस्था आईएसआई के इशारे पर अंजाम दिया था।

फिर कुछ दिनों तक सीमा पर यूं ही गोलीबारी होती रही और वार्ताओं का दौर जारी रहा। और पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासकों ने अपनी रणनीति में परिवर्तन करते हुए जम्मू-कश्मीर को आंतकवाद की ऐसी आग में झोंक दिया जिसके कारण पूरी घाटी से हिन्दूओं का पलायन हो गया, लेकिन एकबार भी भारतीय सरकार ने इसका जवाब सही तरीके से नहीं दिया। इस क्रम में हमारे कितने ही जवान शहीद हुए।

1999 में भी पाकिस्तान में प्रधानमंत्री, नवाज़ शरीफ की सत्ता को वहां के सेनापति, जनरल परवेज मुशर्रफ ने पलट दिया था और करगिल की चोटी, (जो विश्व में सबसे उंची सैन्य इकाई है) जिसे भारतीय सेनाओं ने कुछ समय पहले खाली कर दिया था, पर कब्जा कर लिया और उंची पहाड़ियां पर अपने कब्जे का लाभ लेते हुए शुरुआती बढ़त ली, लेकिन जैसे ही भारतीय नेतृत्व ने सेना को खुली छूट दी तो एक बार फिर से पाकिस्तानी सेना को औंधें मुंह हार का सामना करना पड़ा।

हद तो तब हो गई जब पाकिस्तानी सेना और वहां के शासकों ने अपने ही सेना के जवानों का शव लेने से इंकार कर दिया। उस स्थिति में भी भारत में उन सैनिकों का सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार किया। और देखिए कि अमेरिका के दबाव में जिस परवेज मुशर्रफ ने करगिल का घाव दिया था उसे ही हमने एक बार फिर से आगरा वार्ता में बुलावा भेज दिया। अंधे को क्या चाहिए – दो आंखें और जैसे ही परवेज़ मुशर्रफ के शासन को मंजूरी मिली वह वार्ता को बीच में छोड़कर फुर्र से पाकिस्तान भाग गया।

कहा तो यहां तक जाता है कि भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को करगिल की चोटियों पर पाकिस्तानी सैनिकों के कब्जे की ख़बर थी और यह ख़बर सेना के मेजर, सुरेंद्र सिंह ने दी थी। लेकिन नवाज़ शरीफ के साथ शांति के लिए नोबेल पुरस्कार की चाहत में उन्होंने इसे भूला दिया और नतीजा यह हुआ कि भारत के 900 से अधिक जवानों को असमय काल के गाल में समाना पड़ा। उस समय के रक्षा मंत्री – जॉर्ज फर्नांडीस पर, महालेखा एवं नियंत्रक कार्यालय ने सैनिकों के लिए खरीदे गए ताबूत में भी घोटाला का आरोप लगाया और इस कारण से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था।

मेरा सभी देशवासियों से आग्रह है कि वे क्रिकेट जरूर देखें सुनें लेकिन पाकिस्तानी कुत्तों को इस जमीं पर कभी न घुसने दें और ना कभी उनके साथ खेलने दें हमारी टीम को। सालों को जरूरत थी तो भारत आए और जाते-जाते गहरा घाव कर गए। आप कहेंगे कि इसमें पाकिस्तानी क्रिकेटरों का क्या दोष हैं? साले सारे एक ही हैं, वे सिर्फ हमारा इस्तेमाल करते हैं और फिर अपने असली रूप में सामने आ जाते हैं।

कल टाइम्स नाऊ चैनल पर इसी संबंध में एक कार्यक्रम देख रहा था जिसमें पाकिस्तानी सेना के अधिकारी अपनी शेखी बधार रहा था। सालों ने 1947-48, 62, 65,1971 को भूला दिया। 1999 में करगिल में सैन्य अभियान को भुला दिया। यहां तक कि 1971 में बांग्लादेश युद्ध के समय जनरल नियाज़ी के नेतृत्व में 90 हजार सैनिकों के आत्मसमर्पण को भूला दिया। आप ऐसे कुत्तों से क्या उम्मीद कर सकते हैं। इन्हें शर्म ही नहीं है और हमारे दोगले राजनेता वोट पाने और एक खास समुदाय को संतुष्ट करने के लिए बार-बार उसके पास जाते हैं।

राजपूताना राइफल्स की तेरहवीं बटालियन के दो सैनिक अमर शहीद लांसनायक हेमराज व सुधाकर के सर को पाकिस्तानी सैनिक काट कर ले गए हैं और हमारा हिजड़ा नेतृत्व प्रेम-पत्र लिखने में व्यस्त है। आखिर कब तक हम पाकिस्तान द्वारा संचालित आतंकवाद के शिकार होते रहेंगे। कब तक हम उसके आतंकवादी संगठनों को हमारी अस्मत से खेलने का मौका देते रहेंगे।

एक बार फिर से पाकिस्तान का असली चेहरा सामने आ गया। राजनीतिज्ञों ने वोट के चक्कर में अब तक कितने ही निर्दोष सैनिकों को बलि का बकरा बना दिया। अगर खुद के परिवार से कोई होता तो पता चलता कि इंसानी जान की कीमत क्या होती है? इस देश में अब गरीबों के बच्चे ही सेना में जाते हैं और दोगले नेताओं के कारण आए दिन सेना छोड़ने वाले सैनिकों की संख्या बढ़ती जा रही है। ना तो उन्हें अच्छा सैन्य उपकरण मुहैया कराया जाता है और ना ही उच्च वेतन और उससे जुड़ी सुविधा। फिर भी वे देश प्रेम के चलते सेना में जाते हैं, लेकिन वहां जाने पर हकीकत से दो चार होते ही देश के नेताओं के प्रति इन सैनिकों की धारणा बदल जाती है। जरूरत है कि सभी देशवासियों को देशहित में सैनिक ट्रैनिंग दी जाए और नेताओं को वहां नेतृत्व के लिए अगली पंक्ति में खड़ा किया जाए फिर देखिए दोगले नेताओं की हकीकत?

अमन की आशा की आड़ लेकर जब-तब घाव देने वाले पाकिस्तानियों को हमारा देश कभी माफ नहीं करेगा। हमारा शीर्ष नेतृत्व से आग्रह है कि वह इसका करारा जवाब दे। अन्यथा हमारे जवान यूं ही पाकिस्तानी गोलियों का शिकार होते रहेंगे औऱ हमारे जवानों के मनोबल पर इसका विपरीत असर होगा।

जो लोग यह तर्क देते हैं दोनों देश के पास परमाणु सैन्य क्षमता मौजूद है और पाकिस्तान इसकी आड़ लेकर अपने नापाक इरादों को हमेशा अंजाम देने में कामयाब हो जाता है। वे शायद यह भूल जाते हैं कि पाकिस्तान इसे इस्तेमाल करने से पहले सौ बार सोचेगा। वह अपनी परमाणु क्षमता का इस्तेमाल करे उससे पहले ही हम उसका गर्दन मरोड़ दें। यदि ऐसा होता तो करिगल के युद्ध के समय भी वह अपनी परमाणु क्षमता का इस्तेमाल कर लेता, जब उसे भयानक पराजय का सामना करना पड़ा। सालों को मुफ्त के खाने को उपलब्ध नहीं है।

अमेरिका और सऊदी अरब के दिए गए दाने पर पलने वाले पाकिस्तान को समय रहते अगर सबक नहीं सिखाया गया, तो इसके परिणाम परमाणु हमले से भी घातक होगा। पाकिस्तान, वैसे भी हमारे लिए कभी से भरोसे के लायक नहीं है। अगले साल जैसे ही अमेरिका, अफगानिस्तान से चला जाएगा वह चीन की मदद से फिर से एक बार अपने इस्लामी आंतकियों को कब्जा दिलाने में कामयाब हो जाएगा। भारत का अफगानिस्तान में हजारों करोड़ का निवेश है। वहां सड़क, शिक्षा से लेकर तमाम मूलभूत परियोजनाओं में भारतीय कंपनियों ने निवेश किया है। हमें इन सभी चीजों पर ध्यान देना है। पाकिस्तान को में हर हालत में चारों तरफ से घेरना होगा। वैसे भी पाकिस्तान एक असफल देश है और अगर अगली बार लड़ाई हुई तो इसके चार टुकड़े होंने तय हैं। फिर भी हिमाकत तो देखिए इनकी जैसे कितना बड़ा देश हो, ऐसा व्यवहार करता रहा है।

देश की आर्थिक राजधानी, मुंबई हमले के आंतकवादियों को उसने पहले ही अपने यहां सुरक्षित पनाह दे रखा है। इससे पहले से मुंबई बम विस्फोट के आरोपी, दाऊद इब्राहिम पाकिस्तान मे मौज कर रहा है। हद तो तब हो गई थी जब दाऊद के समधी को भारत सरकार क्रिकेट देखने के लिए वीजा दे रहा था, जिसके वीजा को 2005 से ही निरस्त कर दिया गया था। और सोशल मीडिया पर सरकार विरोधी नारों के कारण इसे रद्द करना पड़ा।

देश के नागरिकों को जागने की जरूरत है। जरूरत है देश का नेतृत्व सही हाथों में हो ना कि नपुंसकों के हाथों में जो फैसले लेने से पहले हर समय आलाकमान से इजाजत लेता है और फिर उस पर चुप्पी साध लेता है।

और अंत में: – कांग्रेस हमेशा से दोगली नीति अपनाती रही है। पहले वह रामदेव को लेने के लिए हवाईअड्डा पर अपने चार-चार केंद्रीय मंत्रियों को भेजती है और जैसे ही उसे खुफिया सूत्रों से पता लगता है कि वह कांग्रेस का विरोध) कर रहा है तो रात के अंधेरे में अपने पुलिस द्वारा सोए हुए समर्थकों पर लाठियां बरसा देती है। दूसरी तरफ, देश के खिलाफ युद्ध की साजिश रचने और हिंदुओं के खिलाफ मुसलमानों को भड़काने के दोषी मौलाना अकबरुद्दीन ओवेसी को गिरफ्तार करने से पहले उसे पूरा मौका देती है प्रचार के लिए। क्योंकि वह उसकी सहायता से हैदराबाद नगरनिगम में शासन में है इसके अलावा उस पार्टी के सात विधायकों का भी समर्थन ले रही है तथा तेलांगना के बनने के बाद इस पार्टी का सहयोग चाहती है। दोहरी राजनीति का दोगला चरित्र. नौटंकी चालू आहे!

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