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जनता की अदालत से

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

कांग्रेस की सरकार का जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास और दूसरों को कम करके आंकना ठीक वैसी ही गलती है जिस तरह कि गलती भाजपा ने शाइनिंग इंडिया का नारा देते हुए किया था। दोनों डूबते जहाज की तरह रह गए हैं।

कुछ हमारे काबिल पत्रकार साथियों की वजह से ही मधुबनी दो दिनों तक जलता रहा और वे
हकीकत को जानने की बजाए इसे और हवा देने में लगे थे। तब शायद वे अपनी पत्रकारिता धर्म को भूल गए थे। या ब्रेकिंग न्यूज़ देने के चक्कर में इतना जानना भी जरूरी नहीं समझा कि वास्तव में जिसके मरने की हल्ला हो रही है वो प्रशांत ही है या कोई और। आज मधुबनी 100 साल पीछे हो गया मात्र इस कारण से औऱ देश-विदेश में बदनामी मिली अलग से।

मेरी चुप्पी का गलत अर्थ लिया उसने। उसे लगता है कि या तो मैं कमजोर हूं या गलत।

रेल विभाग का नया फरमान – जमीन के बदले लोगों को नौकरियां नहीं देगा।

हां, नेताओं की सिफारिश हो तो नौकरियों की क्या बात है पूरा रेल विभाग आपके साथ है।

पाकिस्तान की न्यायालय मुंबई गुनहगारों को सजा देगी बशर्ते कि सबूत पेश किए जायें।आप जो भी सबूत देंगे उसे पाकिस्तान की सरकार व न्यायालय नकार देगी। आखिर में, अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी कोई मारता है। जिस पूत को उसने बड़े नाजों से पाला है उसे ऐसे ही दंड देगा, सिर्फ आपके कहने से।

कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में कानून के शासन पर सवाल उठाया।

लगता है कि सपा प्रमुख के वोट विरोध में पड़ने की आशंका प्रबल हो गई है पार्टी को।

सीएजी के पूर्व अधिकारी आरपी सिंह अपने बयानों से मुकर गए।

अब कांग्रेस किसके बयानों पर अपनी बात रखेगी या देश से अपनी करनी के लिए माफी मांगेगी।

पहली ख़बर – भाजपा ने पोंटी चड्ढ़ा हत्याकांड में बार-बार नाम उछलने के बाद से सुखदेव सिंह नामधारी को प्राथमिक सदस्यता से वंचित किया।

तो क्या पार्टी को इस भलेमानुष के बारे में पहले से जानकारी नहीं थी, जो अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष बनाए हुए था उत्तराखंड में। पहले से ही इस व्यक्ति के नाम पर हत्या, अपहरण, फिरौती के कई केस चल रहे हैं विभिन्न न्यायालयों में।

बिहार की समुचित संशाधनों का अगर सही से राजनीतिक दल उपयोग करे तो उसे केंद्र के सामने भीख मांगने की जरूरत ही ना पड़े। अपनी नाकामियों का ठीकरा केंद्र पर फोंडने से बेहतर है सही प्रबंधन करने का गुर सीखे राजनीतिज्ञ। बिहार में ना ही प्रतिभा की कमी है औऱ ना ही किसी संशाधन की। जरूरत है तो सही इस्तेमाल की।

जब से कपिल सिब्बल केंद्रीय शिक्षा मंत्री बने हैं। उन्होंने देश में शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने के लिए दिन-रात एक दिया है। लगता है कि सिब्बल का एकमात्र लक्ष्य शिक्षा का निजीकरण करना है जिससे कि गरीबों के बच्चे पढ़ें ही ना। जब पढ़ेंगे ही नहीं तो सरकार का विरोध कैसे करेंगे। दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे केंद्रीय संस्थान की दुर्गति इसी का एक नमूना है।

एक दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा, इसी भरोसे के कारण ही तो हम जिंदा हैं अभी तक।
तबाह करके मुझे चैन ना आया तुझे। अब क्या बचा है, जो अर्पित कर दूं तुम्हारे लिए।

चांद पर जाओ जरूर, पर देखना चांद पर गड्ढ़े बहुत हैं, कहीं पैरों में मोच ना आ जाए। जरा संभल कर पांव रखना।

कई बार लगता है कि वरिष्ठ वकील, रामजेठ मलानी की बुढ़ापे में मति मारी गई है। अपराधियों का केस लड़ते-लड़ते

अगर सरकार सच्चाई को स्वीकारने का दम भरती है तो उसे सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं की जान की रक्षा के लिए तत्काल कदम उठाने के लिए प्रबंध करना चाहिए ना कि सूचना को दबाने के लिए हर संभव उपाय।

मैं कभी किसी की व्यक्तिगत भावनाओं को आहत करने के लिए कोई पोस्ट नहीं करता। सो मेरा सभी साथियों से विनम्र निवेदन है कि सच को स्वीकारते हुए इसे कभी भी अपने दिल पर ना लें और हां आप सभी अपनी बात कहने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। हमें सिर्फ अपनी बात दूसरों पर थोपनी ही नहीं चाहिए, बल्कि दूसरों की बातों को पूरी तवज्जों देनी चाहिए। बशर्ते कि बात में दम हो।

आज पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं और यह पत्रकारिता कम दलाली ज्यादा हो गया है।
छोटे पत्रकारों, स्ट्रिंगरों की स्थिति किसी से छुपी हुई है क्या? समाजसेवा के नाम पर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मालिक ना जाने कितनी सुविधायें लेते हैं, सरकार से। क्या कभी उनको अपने यहां कार्यरत गरीब कर्मचारियों की हालत को देखते हैं। उन्हें समय पर कभी पैसे देते हैं। फिर भी ये कर्मचारी इस उम्मीद में काम करते हैं कभी तो सवेरा होगा। यह बिल्कुल उसी तरह से है जिस तरह से सरकारी जमीन पर कब्जा करके या अनुदान पर लेकर अस्पताल या स्कूल तैयार करते समय तमाम तरह के वादे किए जाते हैं, जिन्हें कभी निभाया नहीं जाता।

जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो – अकबर इलाहाबादी के शेर। अपने दिल पर हाथ रखकर कोई पत्रकार कहे कि अगर उसे सामने रोजी-रोटी का सवाल ना हो तो वह आज के मीडिया प्रबंधन को लात नहीं मारेगा। हर पत्रकार को मालूम है कि ख़बरों के साथ छेड़छाड़ की जा रही है लेकिन उसकी भी अपनी बाध्यतायें हैं। इन्हीं सीमाओं के साथ रहते हुए अपने परिवार का गुजारा भी तो करना है। वरना हर कोई अरविंद केजरीवाल ही बन जाए।

आज सोशल मीडिया को छोड़कर स्वतंत्र पत्रकारिता नाम की कोई चीज हो ही नहीं सकती। क्योंकि हर चैनल या प्रिंट मीडिया में किसी ना किसी कॉरपोरेट समूह का पैसा लगा है। तो जाहिर है कि उस समूह की ख़बरें वो चैनल या समाचारपत्र दबा देगा, तो दूसरा अपने समर्थक कॉरपोरेट या नेता या पार्टी आप अपनी सुविधानुसार चाहें जो नाम लें।

जो घर को अपने जलाए/ हमारे साथ चले – मजरूह सुल्तानपुरी। क्या आज की पत्रकारिता इस मापदंड का पूरा करती है।

पाकिस्तान के प्रति ब्रिटेन की सरकार सदा से नरम रवैया अख्तियार करती रही है और यह उसी का नमूना है। आपको याद होगा कि किस तरह से बीबीसी ने अमेरिकी की झूठ में हामी भरते हुए इराक में परमाणु बम होने की पुष्टि की थी, जो कभी भी सही साबित नहीं हो सका।

नीतीश कुमार का नाम विश्व के सौ शीर्ष चिंतकों में। इस सूची को फर्जी कहना ही सही होगा। सूची को बनाने वालों को बिहार के गांवों-शहरों की प्रशासनिक हकीकत को जानने के लिए दो-चार दिन जमीन पर जाकर देखना चाहिए।

हर 500 मीटर की दूरी पर सुशासन की सरकार ने शराब के ठेके खोल रखे है और इसके लिए उसने मंदिर-मस्जिद गिरिजाघर, स्कूल, कॉलेज किसी में भेदभाव नहीं किया है। आखिर में, सुशासन इसी का नाम है। मीडिया इसके बारे में कभी लिखेगी नहीं उसे तो विज्ञापनों से मतलब है।

दिल्ली में अपराधियों के हौसले बुलंद हैं। देश की राजधानी में कहीं भी, कोई भी सुरक्षित नहीं। यहां तक कि कोर्ट में पेशी के दौरान जजों के पॉकिट भी पॉकिटमार काट लेते हैं। पुलिस वालों की तो फिक्र ही नहीं। डीटीसी में यात्रा करते समय कान में लीड लगाए रहिए मोबाइल गायब।

कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों संसद को नहीं चलने देना चाहते हैं। इसमें दोनों को ही लाभ है। कांग्रेस रॉबर्ट वाड्रा को लेकर असमंजस में है तो भाजपा अपने अध्यक्ष नितिन गडकरी को लेकर। और दोनों दल देश के लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं।

भोपाल की भीषण त्रासदी को पैदा करने वाला वारेन एंडरसन भारत सरकार (तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी) की मदद से देश से बाहर हो गया और उसने पीड़ितों की मदद में भी कन्नी काटनी शुरू कर दी थी। आखिर में, वह अमेरिकी नागरिक जो था। यही अपराध अगर किसी भारतीय ने अमेरिका में किया होता, तो क्या वह यूं ही बच जाता।

ये तुम क्या कह रहे हो। हमे तो तुम पर अटूट स्नेह था, आस्था थी. तभी तो तुम्हारी हर मांग को मैं आंख बंद करके पूरा करने को बेताब रहता था। फिर टूटने की बात कहां से आ गई। अपनी जिद पर मत अड़े रहो। फिर से सोचो। ऐसा क्या हुआ। जो जन्मों का बंधन एक पल में टूटने के कगार पर आ गया।

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