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एक और पार्टी का गठन

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

इस देश में पहले से ही सैकड़ों पार्टियां है, लेकिन आम-आदमी आजादी के 65 सालों बाद भी अपने आप को ठगा महसूस करता है। कोई भी राजनीतिक दल आज तक अपने वादे पर पाक-साफ नहीं उतरा है। झूठ बोलना राजनीतिज्ञों के लिए फैशन सा हो गया है। लेकिन आज के इस तकनीक के जमाने और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रचलन के कारण राजनेताओं का झूठ तुरंत ही पकड़ में आ जा रहा है। वे इसे लेकर आगबबूला हो रहे हैं (जब तकनीक का जमाना नहीं था तो करोड़ों रुपये पचा लेते थे, नेताजी और किसी को कानोंकान पता भी नहीं चलता था) और पहले तो विरोधियों का दुष्प्रचार कहके बच निकलते थे लेकिन आज सबूतों के कारण ऐसा कह भी नहीं पाते हैं। दूसरा, अगर वे कहना चाहें कि मेरी बातों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है, वह भी नहीं पह पाते हैं।

समय के साथ-साथ भारत में शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति और लोगों की जागरुकता के कारण नेताओं का झूठ अब टिक नहीं पा रहा है। और यही कारण है कि आम-आदमी के बीच अपनी कमियों के लिए नेताओं की अकर्मण्यता एवं विलासिता को लेकर गुस्सा बढ़ता जा रहा है। जिस देश में आधी-आबादी को जीवन के लिए जरूरी मूलभूत सुविधायें मयस्सर नहीं हो पा रही है, वहां तो ये सब अखरेगा ही ना। ये नेता देश की संपदा को अपने बाप का माल समझकर लूटने एवं निकट संबंधियों (कई बार तो इन निकट संबंधियों में पालतू जानवर और नौकर-चाकर भी शामिल होते हैं, हालांकि उन्हें इसका लाभ नहीं मिलता है, बस मीडिया जगत में बदनामी मिलती है) में बांटने को लेकर व्यस्त रहते हैं। जैसे ही कोई नेता या उसकी पार्टी चुनावों में सफल होती है वैसे ही उसके नजदीकी संबंधियों का जमावड़ा पार्टी और चुनावों दोनों में ही देखा जाने लगता है और ऐसा उनकी असुरक्षा के कारण होता रहा है।

चाहे लालू यादव हों या मुलायम यादव या उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम का कोई नेता या ठाकरे की पार्टी सभी परिवारवाद से ग्रस्त हैं। ऐसे लोग दूसरों को क्या न्याय दिला पायेंगे, ये देखने वाली बात होती है? वे सिर्फ जितना हो सके, कम से कम समय में देश की संपदा को लूटने में लगे होते हैं। और इस काम में सभी पार्टियों के नेता ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ की तरह मिले होते हैं। वे ‘तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाऊं’ की तर्ज पर एक-दूसरे का मामला आने पर या तो संसद की कार्यावाही ठप कर देते हैं जिससे चर्चा ही ना हो या फिर चुप्पी साध लेते हैं।

संसद और विधानसभाओं में अपराधी चरित्र के लोग पैसे और दबंगई के बल पर पहुंच जाते हैं और इन्हें अपनी जातियों का समर्थन विभिन्न कारणों की वजह से मिल पाता है। इन कारणों में, स्थानीय स्तर पर, अपराधी स्वभाव के नेताओं द्वारा तुरंत न्याय दिलाना व अन्य कारण प्रमुख रहे हैं। हम सभी देख रहे हैं कि किस तरह से गिरहकट, चोर, डकैत, स्मगलर सभी तरह के देश-विरोधी गतिविधियों में शामिल रहे लोग हमारे नेता बन रहे हैं। यह हमारे समाज के लिए बहुत ही घातक है।

जब देश में चपरासी तक के पद के लिए परीक्षा आयोजन किया जाता है और यहां तक कि निजी कंपनियां किसी को हजार रुपये की नौकरी देने से पहले कई तरह की जांच करती है। फिर भी देश व समाज का प्रतिनिधि करने वाले लोगों के लिए कोई योग्यता का निर्धारण नहीं किया गया है। आप चाहें तो इसमें आरक्षण का प्रावधान कर दें और समाज के हर वर्ग के लोगों को उचित प्रतिनिधित्व दें। किसी को कोई शिकायत नहीं होगी। अच्छे लोग हमारा प्रतिनिधित्व करें तो शिकायतों का पिटारा भी कम हो जाएगा और धीरे-धीरे स्वत: खत्म हो जाएगा।

उदाहरण के तौर पर, देश में, जांच एजेंसियों के प्रुमखों की बहाली किस तरह से की जाती है, इससे सारी तस्वीर साफ हो जाती है। अभी हाल ही में बहाल हुए, केंद्रीय जांच ब्यूरो के नए प्रमुख, रंजीत कुमार सिन्हा बिहार कैडर के आईपीएस हैं और इन्होंने चारा घोटाले में लालू यादव की जमकर तरफदारी करते हुए सबूतों-साक्ष्यों को मिटाने में सहायता की थी, जिसके कारण उन्हें बराबर पद्दोन्नति मिलती रही और आज वे लालू और कांग्रेस की मिलीभगत के कारण देश की जांच एजेंसी के शीर्ष पायदान पर पहुंच चुके हैं। उनका कार्यकाल दो वर्षों का होगा और कांग्रेस सरकार अपने खिलाफ आने वाले हर जांच का रुख मोड़ देगी, जो सर से लेकर पांव तक घोटाले में फंसी हुई है।

अरविंद केजरीवाल को पानी पी-पी कर कोसने वाले कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी तथा अन्य पिछलग्गू पार्टियों के नेताओं से पूछना चाहता हूं कि उन्होंने सही तौर पर पक्ष या विपक्ष की भूमिका कभी भी निभाने का प्रयास किया है। बस आजादी से लेकर आज-तक भारत की जनता के आंखों में धूल झोंकने और मिल-बांटकर खाने में ही लगे रहे। अगर आप अपनी भूमिका सही से निभाते तो ना तो देश में इतनी पार्टियां होती और ना ही लोग नेताओं से घृणा ही करते, जैसा कि आज नेता का नाम लेते ही मुंह का स्वाद खराब हो जाता है।

सूचना के अधिकार को लागू करने वाली सरकार ने इसका भरपूर लाभ लिया, लेकिन जैसे ही इसकी पोल खुलनी शुरू हो गई तो सूचना के अधिकार कानून पर तरह-तरह की पाबंदियां भी लगानी शुरू कर दी इसने। सभी को पता है कि सूचना के अधिकार के कारण कितने घोटालों का पर्दाफाश हुआ है, लेकिन इसके खिलाफ धीमी गति से कार्यवायी होती है और सबूतों के साथ छेड़खानी की जाती है। कितने ही सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या हो गई लेकिन सरकार ने कभी भी इन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए उचित कदम उठाने की कोशिश नहीं की। क्योंकि वह ऐसा चाहती ही नहीं है। उसकी मंशा तो सूचना का अधिकार मांगने वाले कार्यकर्ताओं को निराश और हताश करने की है।

लेकिन दूसरी तरफ वह भूल जाती है कि अंग्रेजों ने कितने जुल्म किए, फिर भी आजादी के दीवाने टस से मस नहीं हुए और आजादी लेकर रहे। किसी के मरने से आग शांत होने के बजाए और भड़क जाती है। अधिक से अधिक लोग इसकी सच्चाई जानने की कोशिश करने लगते हैं और फिर नतीजा वही होता है। आग दबाने की कोशिश करने वालों को इस आग की लौ में झुलसना पड़ता है। केंद्र की सरकार सबकुछ जानते हुए ऐसा कर रही है और नतीजे से अंजान है ऐसा भी नहीं उसे सत्ता का घमंड हो गया है। उसे मालूम है कि इतने सारे घोटाले करने के बाद भी पार्टी अगर सत्ता में है और कुछ नहीं बिगड़ा है तो आगे भी कुछ नहीं होगा।

अभी केंद्रीय गृहमंत्री, सुशील शिंदे ने ठिठाई से कहा भी था कि लोग थोड़े समय में ही घोटालों को भूल जायेंगे, जैसा कि बोफोर्स घोटाले को भूल गए, लेकिन पार्टी के लिए इसका दूसरा स्याह पक्ष भी है जो उन्होंने या तो जान-बूझकर नहीं बोला या चुप रहना बेहतर समझा। बोफोर्स घोटाले के बाद से कांग्रेस पार्टी बहुमत के लिए तरसती रह गई और उसे कभी लालू तो कभी मायावती और मुलायम से सशर्त समर्थन लेना पड़ा, भले ही वो इसे नकारे।

अगर, इन सबके विरोध में केंद्रीय जांच एजेंसी के पास आय से अधिक संपत्ति का मामला नहीं होता और जांच एजेंसी निष्पक्ष व स्वतंत्र होती तो कांग्रेस कब का इतिहास की किताबों में समेटा चुकी होती, वो तो जांच एजेंसियों की बदौलत देश की सत्ता में अभी तक कायम है। गांधी के नाम की कसमें खाने वाले कांग्रेसी अगर गांधी के कदमों पर चलते तो देश की ऐसी दुर्गति नहीं होती।

आज आम-आदमी के नाम से पार्टी खड़ा करने वाले अरविंद केजरीवाल ने तो मात्र जनलोकपाल बिल की मांग की थी। लेकिन शुरुआत में मांगों पर सहमति देने वाली सरकार ने किस तरह से सिरे से खारिज कर दिया यह सभी ने देखा।

जिस रामदेव को लाने के लिए हवाईअड्डा पर चार-चार केंद्रीय मंत्रियों की फौज गई थी उसी रामदेव और उनके समर्थकों को किस तरह से आधी रात को पीटा गया, ये सब बर्बरता की इंतिहा को दर्शाता है और इस मामले में तो केंद्र ने सारी मर्यादाओं को तोड़ते हुए अंग्रेजों को भी पीछे छोड़ दिया। उसे लगता है कि वह जो भी करेगी जनता सब जानते हुए भी चुपचाप सहती रहेगी लेकिन ऐसी बात नहीं है। कांग्रेस के किले में दीमक लग चुकी है और वह पूरी तरह से खोखली भी हो चुकी है। बस जरूरत है एक धक्का देने की।

अब आते हैं, भारतीय जनता पार्टी पर। इस पार्टी को लगता था कि कांग्रेस से नाराज वोटर उसकी झोली में आ जायेंगे उसे ज्यादा कुछ करना नहीं पड़ेगा, लेकिन अब उसे लगता है कि भारतीय मतदाताओं के सामने एक और पार्टी आ चुकी है और उसे मिलने वाले वोटों का कुछ हिस्सा यह पार्टी ले जाएगी, तब से यह तिलमिला गई है।

अरे पहले तो अपने कार्यों का विश्लेषण करिए जनाब किस तरह से आपकी पार्टी जो अलग चाल, चेहरा और चरित्र का दावा करती थी। अन्य पार्टियों की तरह ही हो गई है और दूसरी पार्टियों तथा उसमें कोई ज्यादा फर्क नहीं है। यहां भी अपराधियों व भ्रष्टाचारियों और जातिगत क्षत्रपों का वैसा ही स्वागत है जैसा कि अन्य क्षेत्रीय दलों व कांग्रेस में होता रहा है। तो फिर किस मुंह से आप अपने को अलग चाल, चेहरा और चरित्र का बता रहे हैं।

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