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हरेश कुमार
दिल्ली विश्वविद्यालय का परीक्षा विभाग देश का भ्रष्टतम विभाग है। कहने को यह देश का प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय है लेकिन मेरा अपना अनुभव बहुत ही कटु रहा है। मैंने यहां से लॉ किया लेकिन पहला सेमेस्टर सब कुछ ठीक-ठाक रहा। दूसरे सेमेस्टर से दिक्कतें आनी शुरू हो गई। कभी विश्वविद्यालय तो कभी कॉलेज का चक्कर लगाके थक गया हूं। निराश. यहां सूचना के अधिकार का कोई मतलब नहीं है।
मैंने आरटीआई डाला था लेकिन चार महीनों के बाद भी मुझे कॉपी नहीं दिखाई गई और हद तो तब हो गई जब मुझसे कहा गया गया कि आपने एमए अंग्रेजी पेपर के लिए अपना आवेदन किया है फिर बैकडेट में एक पेपर में 10 नंबर बढ़ा दिए गए।
डीयू में आरटीआई के लिए भी सोचना पड़ता है। लॉ में 10 रुपये के स्थान पर प्रति पेपर 750 रुपये देने पड़ते हैं। पहले पुनर्मूल्यांकन के लिए 100 रुपये प्रति पेपर देने पड़ते थे जो अब 750 रुपये प्रति पेपर हो गए हैं। इसके अलावा, फिर से परीक्षा देने पर 800 रुपये एक सेमेस्टर के देने होते हैं चाहे एक पेपर हो या चार, जो कि गलत बात है पहले 100 रुपये लगते थे। एक गरीब विद्यार्थी कहां से ये सब लाएगा।
दिनों-दिन पढ़ाई का स्तर गिरता जा रहा है। कुछ गिने-चुने शिक्षकों को छोड़कर कोई भी शिक्षक गुणवत्ता के मापदंड पर खड़ा नहीं उतरता है। अगर इनके सामने किताब ना हो तो सेक्शन की व्याख्या सही तरीके से कर पाने में असमर्थ रहते हैं शिक्षक और डीयू में पढ़ाते हैं। पढ़ाई का खर्च बढ़ता चला गया और गुणवत्ता से समझौता होता चला गया। जिन शिक्षकों को कुछ आता भी है वो सिर्फ राजनीति में व्यस्त रहते हैं। गलती परिक्षा विभाग की और भुगतना छात्रों को पड़ता है। ऐसे में, कोई किस तरह से पढ़ाई करे यह समझ से परे है।
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