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रैलियों से देश को क्या हासिल होगा?

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

बीते 4 नवंबर को देश में दो बड़ी रैलियों का आयोजन सत्ताधारी पार्टियों के द्वारा किया गया। इन दोनों ही रैलियों का एक ही मकसद था –शक्तिप्रदर्शन और पार्टियों के अनुसार, इसमें वे कुछ हद तक कामयाब भी हुईं। लेकिन जैसा कि सभी जानते हैं कि रैली में किस तरह से भीड़ जुटाई जाती है।

इसके लिए आपको मैं लालू यादव के काल में बिहार में आयोजित रैलियों के बार में बताना चाहूंगा। लालू यादव, 1989 में मंडल और कमंडल के आंदोलन के बाद बिहार की राजनीति में शीर्ष पायदान पर आए थे। यह बिहार का दुर्भाग्य था।

अगर उस समय रामसुंदर दास को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया गया होता तो बात ही कुछ और होती, लेकिन शायद बिहार के भाग्य में लालू को राजा बनना लिखा था। (देवीलाल तथा विश्वनाथ प्रताप सिंह की लड़ाई में लालू प्रसाद यादव बाजी मार ले गए। उस समय लालू यादव को जनता दल पार्टी के द्वारा आयोजित गुप्त मतदान में रामसुंदर दास से कम मत मिला था, लेकिन शिवहर से विधायक रघुनाथ झा ने अपने 19 समर्थकों के साथ लालू का हाथ मजबूत कर दिया और वे बिहार के मुख्यमंत्री बन गए)

लालू यादव ने अपने शासन में बिहार में रैलियों का अंबार लगा दिया था। आए दिन किसी ना किसी जाति के नाम पर रैलियों का आयोजन किया जाता था और उसमें प्रशासन के लोग अपनी उच्च भागीदारी निभाते थे। सभी का एक ही मकसद – किसी तरह से लालू की निगाहों में आकर पार्टी का टिकट लेना या खुलेआम लूट की छूट प्राप्त करना था और ऐसे में लालू के हाथ से बिहार का शासन कब बेलगाम हो गया पता ही नहीं चला।

रैलियों में भीड़ एकत्र करने के लिए प्रशासन की तरफ से जहां गाड़ियों की व्यवस्था की जाती थी वहीं व्यापारियों से चंदा उगाही और अपराधियों से भी उनका सहयोग लिया जाता था। बदले में अपराधी मोटे व्यापारियों से मनमानी राशि वसूलते थे। अपहरण को राज्य प्रशासन के द्वारा एकमात्र उद्योग का दर्जा प्राप्त हो गया था, जिसमें जोखिम कम और मोटा माल प्राप्त करने की संभावना हर समय बनी रहती थी।

लालू की रैलियों में टेंट की व्यवस्था करने वालों तक को बिहार विधान परिषद का सदस्य बना दिया गया था। यहां तक कि लालू यादव को मछली पहुंचाने वाला भी विधानपार्षद बन गया था। इसके अलावा, लालू ने अपने सभी सगे-संबंधियों को प्रशासन में खुली छूट दे रखी थी और जिसका परिणाम बाद में भयंकर हुआ, सालों ने बगाबत कर दी और बाद में लालू को कमजोर करने में बड़ी भूमिका निभाई।

रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए,गांव, प्रखंड से लेकर जिला स्तर तक सभी की अलग-अलग जिम्मेदारियां दी जाती थी और सभी का मकसद बिल्कुल साफ था इसी बहाने लालू जी की नजरों में आना और स्थानीय स्तर पर ही सही, अपनी-अपनी राजनीति को चमकाना। इसमें कई लोग सफल भी हुए। दूसरी तरफ आए दिन होने वाली रैलियों से एक तरफ जहां व्यापारी समुदाय के लोग परेशान थे वहीं आम-जनता को भी इससे परेशानियों का सामना करना पड़ता था। और इसी सबके कारण लालू के समर्थक भी बाद में उनसे एक-एक करके अलग होते गए।

आज जब नीतीश कुमार बिहार की सत्ता में हैं, तो उन्होंने बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए बीते 4 नवंबर को पटना के गांधी मैदान में अधिकार रैली के नाम से एक रैली का आयोजन किया। रैली में सत्ता का समर्थन होने के कारण भीड़ दिखी, लेकिन हाल के दिनों में नीतीश कुमार ने ऐसी कई गलतियां की है जिसका आने वाले चुनावों में उनको खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

बिहार की जनता ने लगातार दो बार उन्हें सत्ता की चाबी सौंपी लेकिन वे स्वच्छ प्रशासन देने में नाकाम रहे और सिर्फ केंद्र और लालू के जंगलराज के सर पर इसका ठीकरा फोड़ते रहे। लेकिन आप कब तक राज्य के मतदाताओं को मूर्ख बनाते रहेंगे, हर चीज की एक सीमा होती है? ना तो नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद राज्य में अपराध में कमी आई है और ना ही बेरोजगारी में।

केंद्र प्रायोजित मनरेगा जैसी योजनाओं में बड़े पैमाने पर धांधली हो रही है। गांव में मुखिया बेलगाम हो गए हैं और सरकारी योजनाओं की राशि को जमकर लूट रहे हैं। जमीन पर कोई भी विकास कार्यक्रम होते नहीं दिख रहा है। जो थोड़ा-बहुत सड़क निर्माण का कार्य हुआ भी तो उसकी गुणवत्ता से सभी कोई परिचित है। नक्सलियों का आतंक और क्षेत्रफल बढ़ता ही जा रहा है। स्कूलों-कॉलेजों के पास अपना भवन तक नहीं है, नक्सली क्षेत्रों की तो बात करना ही बेकार है। अगर दीवालों पर रंग-रोगन कर देने से बीमार मरीजों को अच्छी चिकित्सा सुविधा मिल जाती हो, बच्चों को पढ़ाई की अच्छी सुविधा मिल जाती हो तो कोई बात नहीं, इसमें आप कामयाब हुए हैं। नीतीश कुमार का सुशासन मीडिया की देन है।

कुमार को मीडिया प्रबंधन में महारत हासिल है और हो भी क्यों ना, वे इंजीनियर जो ठहरे। सरकारी पैसे का सदुपयोग देश-विदेश की मीडिया में राज्य के प्रचार के लिए करते हैं। अगर ऐसा ही होता तो राज्य के निवासी अन्य राज्यों में क्यों जाते और अभी तक क्यों रहते? अगर घर के करीब किसी को रोजगार मिल रहा हो तो कोई भी अपना घर-प्रदेश नहीं छोड़ना चाहता है। लेकिन हमारे देश के नेताओं को राजनीति से फुर्सत हो तब ना विकास का कार्य करे। क्योंकि उन्हें भी पता है कि लोग विकास के नाम पर कम अपने जाति, धर्म, प्रांत के नाम पर वोट करते हैं। फिर राजनीतिक पार्टियों को और क्या चाहिए? नीतीश कुमार ने जो भी विकास के काम किए हाल के दिनों में अपने कुछ निर्णयों के कारण सारे धूल में मिल गए हैं।

दूसरी तरफ, नीतीश कुमार के राज्य में एक बात जरूर हुई है गली-गली में शराब का ठेका खुल गया है और लड़कियों का घर से निकलना दूभर हो गया है। शाम ढ़लते ही इन ठेकों पर शोहदे आ धमकते हैं और फिर अपनी हरकतों से लोगों का जीना हराम कर रहे हैं। नीतीश कुमार को इन सबसे क्या। उन्हें तो टैक्स मिल ही रहे हैं, राज्य का खजाना भरने के साथ-साथ पार्टी का राजकोष बढ़ रहा है और समर्थक भी मजबूत हो रहे हैं।

उसी तरह से, 4 नवंबर को ही केंद्र में सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी ने रामलीला मैदान में रैली का आयोजन किया। आए दिन भ्रष्टाचार के खुलासे से कांग्रेस पार्टी का बुरा हाल हो गया है और वो इस सबसे लोगों का ध्यान हटाने के साथ-साथ अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाना चाहती है। इस सबके लिए उसे एक रैली करनी थी, सो उसने रामलीला मैदान में एफडीआई (इस देश में स्पेस घोटाला, थोरियम घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, कोयला आवंटन घोटाला, पेट्रोलियम घोटाला सहित ना जाने कितने घोटाले हुए हैं और देश का पैसा विदेशी बैंकों में काले धन के रूप में जमा है। स्विट्जरलैंड, जर्मनी, फ्रांस से लेकर छोटे-छोटे द्वीपों तक के बैंकों में अरबों करोड़ों रुपये पड़े हैं और देश का नेतृत्व सरकारी योजनाओं के लिए पैसे की कमी का रोना रोकर विदेशी कंपनियों को बुलावा देता है बजाए इसके कि देश के पैसे को देश में लाने की व्यवस्था करने की। चूंकि इसमें खुद पार्टी के नेताओं का काला धन छुपा है, जो फिर से किसी ना किसी बहाने देश में आएगा।) पर एक रैली करने का संकल्प लिया और देश भर से कांग्रेसियों को दिल्ली में बुलाकर अपनी ताकत का प्रदर्शन किया, लेकिन इसमें भी हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने सबसे बाजी मार ली। दिल्ली की मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष के बीच रैली के दिन भी अपने-अपने अहंकार को लेकर दूरियां बरकरार रही। इस रैली से कांग्रेस देश के लोगों को एफडीआई के फायदे बताना चाहती थी।

एफडीआई से किसी को फायदा हो या ना हो लेकिन कुछ नेताओं की किस्मत जरूर चमक जाएगी। देश के हालात और लोगों की समस्याओं से ना तो किसी राजनीतिक दल को लेना है और ना रैलियों से इसका मकसद कभी हासिल होने वाला है। हां, आम-जनता को परेशानी जरूर होती है। और ऐसे में अगर किसी बीमार को अस्पताल ले जाना हो तो उसकी मौत होनी तय होती है। हमारा देश महान है और नेताओं का तो कहना ही क्या। नेताओं को जरूरत पड़े तो रातों-रात कानून में बदलाव कर दिए जाते हैं देश हित के नाम पर। फिर, बाकि जनता की फिक्र के लिए अदालतें तारीख पर तारीख तो देती ही रहती हैं। हर तरफ भ्रष्टाचार का बोलवाला है। तो जय बोलो हिन्दुस्तान और भ्रष्ट नेताओं की। मिलते हैं किसी आगामी रैली के बाद। तब तक के लिए एक छोटा सा ब्रेक………………।

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