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हरेश कुमार
नितिन गडकरी भारतीय जनता पार्टी और संघ के लिए ऐसी पहेली बन गए हैं जो ना तो निगलते बनता है और ना ही उगलते। संघ के सामने समस्या यह है कि गडकरी का नागपुर कनेक्शन और महाराष्ट्र से होने के साथ ही बौना कद होने के कारण उन्हें हैंडल करना आसान था जबकि यही संघ था जो जिन्ना की मजार पर लालकृष्ण आडवाणी के द्वारा उनकी प्रशंसा करने पर उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था।
अभी हाल ही में, नितिन गडकरी को दूसरा कार्यकाल देने के लिए ही भाजपा के संविधान में संशोधन किया गया था और गुजरात के मुख्यमंत्री, नरेंद्र मोदी से भी गडकरी के दोबारा कार्यकाल के लिए नागपुर यात्रा के दौरान सहमति ले ली गई थी। लेकिन गडकरी के महाराष्ट्र में कार्यकाल के पीडब्ल्यूडी मंत्री (लोक-निर्माण) रहने के दौरान जिस कंपनी को सड़क निर्माण का ठेका दिया गया था उसी से उनकी कंपनी ने सैकड़ों करोड़ रुपये लिए। इसके पीछे की सच्चाई को एक अदना सा आदमी भी जान सकता है। एक कंपनी किसी नेता को क्यों पैसे देता है? यह सच्चाई भारत में सबको पता है, किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं है।
विजयादशमी के अवसर पर संघ प्रमुख मोहन भागवत के संबोधन पर सभी की निगाहें लगी हुई थी, लेकिन उन्होंने संघ के कार्यकर्ताओं सहित सभी को निराश किया। देशवासियों को उनसे काफी कुछ अपेक्षायें थी। वे इस मौके का लाभ उठा सकते थे और गडकरी को बाहर का रास्ता दिखाकर अपनी छवि को भी पाक-साफ रख सकते थे।
संघ या भाजपा का दुर्भाग्य कहिए कि एक बार फिर से बंगारू लक्ष्मण की तरह ही लगता है कि बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले की तर्ज पर गडकरी को भाजपा से अंतत: जाना ही होगा। वैसे भी आज के युग में नेताओं की विश्वसनीयता खत्म हो गई है और यह एक दिन में नहीं हुआ बल्कि पिछले 65 सालों में नेताओं की कार्यप्रणाली इसके लिए जिम्मेदार है।
सुषमा स्वराज की ईमानदारी कर्नाटक में बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं तक ही जाकर शुरू और वहीं पर खत्म हो जाती है। बाकि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के एक-आध अपवाद को छोड़कर सभी नेताओं पर कमोबेश आरोप लग ही चुके हैं।
फिर भारतीय जनता पार्टी के नेता किस मुंह से अपने आप को अलग चाल, चेहरा और चरित्र की पार्टी बताते हैं, जबकि इनके नेता भी अन्य दलों के नेताओं की तरह ही भ्रष्ट और बेईमान हैं। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि दूसरों पर आरोप लगाना बहुत आसान होता है, लेकिन जब खुद की बारी आती है तो बगले झांकने लगते और इसे मीडिया ट्रायल कहते हैं। क्या खूब सही कहा! जब अपनी बारी आई तो आप भी वही राग अलापने लगे कि यह सब विरोधियों की साजिश है।
नितिन गडकरी को अपने दूसरे कार्यकाल पर तनिक भी आशंका नहीं थी। कांग्रेस और अन्य दलों के नेताओं से गडकरी का अच्छा संबंध रहा है तभी तो किसी भी मुद्दे पर इन्होंने कोई जनांदोलन नहीं किया। फिर, जनता के सामने इतना बड़ा बवंडर कैसे आया। गडकरी को शक है कि खुद भाजपा के ही कुछ नेता जो गडकरी के बढ़ते कद से परेशान होने लगे थे, ने मीडिया और केजरीवाल को गडकरी के बिजनेस के बारे में खबर दी।
वैसे महाराष्ट्र में पक्ष-विपक्ष के नेताओं का कारबारी हित है और वे एक-दूसरे की जहां तक हो सके मदद करते हैं। सहकारी समितियों और चीनी मिलों सहित विभिन्न धंधों में वे एक आम सहमति का रूख अपनाते हैं और इस तरह से देश की जनता अपने-आप को ठगा महसूस करती है।
इस तरह से कहा जा सकता है कि देश में किसी भी पार्टी के नेता का दामन पाक-साफ नहीं है और हमाम में सारे नंगे हैं।
उत्तर भारत के नेता भले ही प्रत्यक्ष तौर पर कारोबार में हाथ ना आजमाते हों लेकिन कारोबारियों को अपने हित में लगातार इस्तेमाल करते रह हैं। इसका उदाहरण, लालू यादव के साथ प्रेमचंद गुप्ता और समाजवादी पार्टी के साथ अनिल अंबानी और अमर सिंह तथा सहारा परिवार के बढ़ते कारोबारी रिश्तों में आप तलाश सकते हैं।
पहले बिहार में नेताओं के समर्थक छोटे-बड़े ठेकेदारी करते थे। फिर, पैसों के लिए वे कुछ भी करने के लिए तैयार हो गए। ठेकेदारी या स्मगलिंग से मिले पैसों से कुछ सामाजिक कार्य करते थे और इस तरह से क्षेत्र में धीरे-धीरे ही सही उनकी पहचान बनती जाती थी और एक दिन वे नेताजी के लिए ही भस्मासुर बन जाते थे और या तो किसी दल से टिकट का जुगाड़ हो गया तो ठीक है वरना निर्दलीय ही विधानसभाओं में पहुंचने लगे थे।
ऐसे लोग पैसों या मंत्री पद पाने की चाहत के कारण दलबदल करने में माहिर होते थे और सत्ता में आने वाले हर दल को इन लोगों की जरूरत होती थी।
फिर, एक ऐसा दौड़ आया जब बिहार में शासन-व्यवस्था में गिरावट आ गई और लोगों ने पैसों के लिए हत्या, डकैती जैसे अपराध करने शुरू कर दिए। इसमें अचानक से तेजी आ गई थी। तभी पश्चिम मोतिहारी (बेतिया) के तत्कालीन एसपी ने वहां के स्थानीय गिरोहों को पैसा कमाने की एक नई तकनीक बतायी और बाद में यह देश भर में अपहरण के नाम से चर्चित हो गया। पैसे वाले लोगों के बच्चे या परिवार के किसी सदस्य को उठाकर उनसे पैसा वसूलना आम हो गया था और यह एक तरह से सेफ धंधा हो गया था। एक तरह से यह उद्योग का रूप दारण कर चुका था, जिसमें ज्यादा खतरा भी नहीं था। इसके कारण बिहार की बदनामी देश-विदेश में हुई और इसे कानून-व्यवस्था के लिए खतरनाक मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जंगलराज तक की संज्ञा दे दी थी।
लालू यादव के सत्ता से हटने में अपहरण उद्योग की बड़ी भूमिका रही। हालांकि, आज भी यह पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है लेकिन पहले से कमी जरूर आई है।
बिहार से बंटवारा के बाद झारखंड बनने से किसी को फायदा हुआ हो या ना हो संशाधनों की खुली लूट जरूर बढ़ घई है। उसी तरह से उत्तराखंड, छत्तीसगढ़। हिमाचल प्रदेश में भी देखने को मिल रहा है।
अब आते हैं दक्षिण और पश्चिम भारत की राजनीति और राजनीतिज्ञों पर। दक्षिण और पश्चिम भारत के राजनीतिज्ञों का शुरू से ही शिक्षा और कारोबार में काफी दखल रहा है या यूं कह सकते हैं कि अपने धंधे को बढ़ाने के लिए इन लोगों ने राजनीति के कवच के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। ऐसा नहीं है कि गोआ में आज खनन का धंधा शुरू हुआ है।
पिछले 50 वर्षों से अधिक समय से वहां खनन का धंधा चल रहा है। हां, यह सही है कि राजनीतिज्ञों की सीधी भागीदारी पहले नहीं होती थी और उन्हें कमीशन के तौर पर रकम मिला करती थी, लेकिन आज के समय में राजनीतिक परिवारों से जुडे लोग ही खनन उद्योग से जुड़ गए।
आप देख सकते हैं कि किस तरह से आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की संपत्ति में बढ़ोतरी हुई। इस सबके पीछे उनके पिता का बहुत बड़ा योगदान था, जो वहां के मुख्यमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के विश्वासपात्रों में से एक थे। और आज जब जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस से अलग होकर पार्टी बना चुके हैं तो इन्हें तमाम तरह की परेशानियों और जांच से दो-चार होना पड़ रहा है। ये इस देश की कड़वी हकीकत है।
उसी तरह से तमिलनाडु में द्रमुक के करुणानिधि परिवार और अन्नाद्रमुक के जयललिता और उनकी सहेली शशिकला का नाम भ्रष्टाचार को लेकर समाचार माध्यमों की सुर्खियों में लगातार रहता है। लेकिन वहां की जनता कई द्रुमक तो कभी अन्नाद्रमुक को ही सत्ता सौंपती है। फिर, क्यों ये नेता भ्रष्टाचार के लिए चिंतित हों।
देश के किसी भी भूभाग के नेताओं को ले लीजिए। कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के बारे में कहा जाता है कि केरल पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में सत्ता में रहने के बाद उन्होंने कारोबार खड़ा नहीं किया लेकिन साफ-सुथरा प्रशासन दिया है, ऐसा भी नहीं है। नहीं तो क्या कारण है कि पश्चिम बंगाल में 3 दशकों के शासन के बाद उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ता और ममता बनर्जी जैसी नेता आती। लेकिन पश्चिम बंगाल के निवासियों को ममता के शासन से भी कोई लाभ होने वाला है, ऐसा कहना मुश्किल है।
ममता बनर्जी ऐसी नेता है जो सदा अपने ही बुने भ्रम का शिकार होती हैं और उन्हें लगता है कि कहीं और दूसरा पार्टी में उनका स्थान ना ले ले इस डर से किसी को आगे बढ़ने नहीं देना चाहती है। यही डर मायावती और मुलायम सिंह के साथ भी है। बस घूम-फिर कर देश की राजनीति फिर से वहीं आ जाती है। इन्हीं भ्रष्ट नेताओं और इनके परिवारों के पास।
अब देखना है कि कब तक देश के लोग ऐसे नेताओं के कारनामों को बर्दास्त करहे रहेंगे और कब तक इनके खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को सत्ता का शिकार होना पड़ेगा?
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