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ओ माई गॉड – एक सफल सामाजिक फिल्म

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

कबीर ने वर्षों पहले धर्म की ओट लेकर समाज को अंधकार युग में ले जाने वाले धर्मांध लोगों पर काफी कुछ अपनी कविता के माध्यम से कहा था। विभिन्न धर्म में जारी गलत प्रथाओं पर उन्होंने करारी चोट की थी।

कबीर ने हिंदू धर्म में जारी पूजा प्रथा पर प्रहार करते हुए लिखा– पत्थर पूजे हरि मिले तो, मैं पूजूं, पहाड़। उससे तो चक्की भली जो पीस खाए संसार।।

तो दूसरी तरफ, उन्होंने मुस्लिमों की मस्जिदों में अजान पर भी सवाल उठाए। कबीर के अनुसार – कांकड़-पाथर जोड़ के मस्जिद लिया बनाए। ता चढ़ी मुल्ला बांग दे। क्या बहरा हुआ खुदाय।।

कबीर समाज में बढ़ रहे धर्मांधता को लेकर चिंतित थे। उन्होंने आजीवन इसका विरोध किया। वे पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन उन्होंने अपनी बातों से जनमानस के बड़े भाग को गहरे तौर पर प्रभावित किया।

आज वर्षों के बाद, एक फिल्म देखी – ओ माई गॉड जो धर्मांधता के विरोध में बनी है। इस फिल्म के माध्यम से निर्देशक ने बड़े ही सीधे और सरल तौर पर मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघरों में फैले भ्रष्टाचार और पूजा-पाढ़ पर प्रहार किया है।

एक तरफ, इस महंगाई के युग में आम-आदमी जीवन जीने के लिए तमाम तरह की मुश्किलें सह रहा है। फिर भी वो अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोजी-रोटी जुटाने में अपने को असमर्थ पा रहा है तो दूसरी तरफ मंदिर-मस्जिद और गिरिजाघरों में बैठे धर्म अधिकारी उन्हें भाग्य का भय दिखाकर भयादोहन करने में लगे हैं। मंदी के इस युग में तो ऐसे लोगों का धंधा और तेजी से पसर रहा है। हर किसी को इससे बाहर निकलने के लिए पूजा-पाढ़ और चमत्कार में भरोसा रह गया है, जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं।

स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है – कर्मण्येवाधिका रस्ते मां फलेषु कदाचने। कर्म करो, फल की चिंता मत करो। फल ईश्वर पर छोड़ दो।

लेकिन इधर हाल के दिनों में ऐसा देखने को आ रहा है कि भ्रष्ट और जुगाड़ी लोग तमाम तरह के सुख भोग रहे हैं और जो लोग इसके वास्तविक हकदार हैं, उनसे उनका हक छीना जा रहा है। जोर-जबरदस्ती के बल पर। और उन्हें यह समझाया जाता है कि गरीबी में जीवन व्यतीत करना उनके भाग्य में लिखा हुआ है। देखिए, किस तरह की चोरी और सीनाजोरी चल रही है।

एक तरफ, मंदिरों में दूध की नदियां बह रही है तो दूसरी तरफ वही मंदिर के बाहर कई गरीब भिखारी बैठे रहते हैं, बस इस इंतजार में कि कोई भक्त उन्हें कुछ खाने को दे दे। वहीं मस्जिदों और पीर के दरगाह पर भी लोग चादर चढ़ाते हैं लेकिन दूसरी तरफ, उन्हीं के समुदाय में गरीब व्यक्ति दाने-दाने को मोहताज रहता है। और इस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। क्योंकि उनकी दुकान फिर नहीं चलेगी।

जिस साईं बाबा ने अपनी जिंदगी में लेत की एक-एक बूंद को जमा किया। उन्हीं के मंदिर में करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाया जाता है। क्या इससे किसी गरीब जनता को कोई लाभ होता है? इस देश में ऐसे कई हजार मंदिर, मस्जिद औऱ गिरिजाघर हैं जिनके पास अथाह संपत्ति है लेकिन उसका इस्तेमाल आम-आदमी की गरीबी मिटाने के लिए नहीं किया जाता बल्कि उसकी संपत्ति का लाभ उसके व्यवस्थापक उठाते रहे हैं। इसमें सरकार का भी अपना सहयोग रहा है। वोटबैंक जो ना कराए। इनके प्रबंधक समय-समय पर सरकार में शामिल दलों को मोटी चुनावी रकम मुहैया कराते रहे हैं।

गिरिजाघरों में लोग कितने कैंडल जलाते हैं लेकिन अगर यही कैंडल किसी गरीब इसाई के घर जले तो उसके घर से अंधकार मिट जाएगा। शायद ऐसा सोचना उनके धंधे पर प्रहार करने जैसा है। और ये लोग इस तरह के किसी भी सामाजिक सुधार के कार्य को होने नहीं देते हैं।

समाज में, शिक्षा की कमी और लोगों के विभिन्न धर्म, संप्रदाय के प्रति गहरी आस्था का इनके धर्मगुरू गलत लाभ उठाते रहे हैं। अगर लोग जागरूक हो जायें तो ऐसे लोगों की दुकान स्वत: ही बंद हो जाएगी।

और अंत में, ओ माई गॉड फिल्म एक अच्छा सामाजिक संदेश देने में कामयाब रही है। ओ माई गॉड के निर्देशक एवं कलाकारों को हमारा हार्दिक अभिनंदन। इसी तरह से, आगे भी सामाजिक मुद्दों को अपनी फिल्म का हिस्सा बनाते रहें। इसी आशा के साथ।

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