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हरेश कुमार
एक तरफ, सरकार गरीबों को सस्ती और सुलभ शिक्षा का वादा कर रही है और दूसरी तरफ, उसे शिक्षा से वंचित करने का हर स्तर पर प्रयास किया जा रहा है। आजादी के 65 सालों के बाद भी आज तक देश के सभी गांवों तक स्कूलों का प्रबंध नहीं हो सका है या केंद्र या स्थानीय स्तर पर, सत्ता में मौजूद सरकार इसके लिए कोई ठोस प्रयास करना नहीं चाहती है।
सरकार पैसे का रोना हर स्तर पर रोती है और इसका एकमात्र इलाज विदेशी निवेश बताती रही है और उसी सरकार के पास अपने कार्यों का झूठा ढ़ोल फोड़ने के लिए देश-विदेश के विभिन्न समाचार माध्यमों में विज्ञापन देने के लिए पैसे की कोई कमी नहीं रहता है, यानि दो तरफा व्यवहार और कार्यप्रणाली। और जब नेताओं या उससे जुड़े उच्च पदस्थ कर्मचारियों या बाहुबलियों की बात आती है तो सरकार एक मिनट में अपने ही बनाए कानून की धज्जियां उड़ाने में देर नहीं करती है या एक पल में उसे तुरंत बदल डालती है।
किसी भी कानून को बनाते समय इस देश के जनप्रतिनिधि अपने लिए उसमें एक लूपहोल जरूर छोड़ देते हैं, जिससे समय आने पर यदि पकड़े जायें तो उसका इस्तेमाल करके कम से कम अपना बचाव तो किया ही जा सके।
खैर, अभी हम देश की शिक्षा समस्या पर बात कर रहे थे। तो इस बात में कोई दो राय नहीं कि आज भी आम-आदमी को शिक्षा जैसी मूलभूत जरूरतों से वंचित करने का काम किया जा रहा है और जो काम सरकार की प्राथमिकता में प्रथम होनी चाहिए उसे निजी हाथों में धड़ल्ले से सौंपने का काम किया जा रहा है। नहीं तो क्या बात थी कि गांव-गांव में जहा सरकारी स्कूलों की पहुंच नहीं हो रही है वहीं पर निजी स्कूल आसानी से पहुंच रहे हैं और किसी अन्य व्यवस्था के अभाव में अभिवावक अपने बच्चें का एडमिशन उन स्कूलों में करा रहे हैं। जहां ना तो पढ़ाई की कोई उचित व्यवस्था है और ना ही उसमें कार्यरत शिक्षकों को भी कोई प्रशिक्षण मिला है। वे बस अपनी रोजी-रोटी के लिए एक स्कूल खोल कर बैठ गए हैं जिसके माध्यम से उन्हें अच्छी आमदनी हो जाती है और बच्चों को ना मामा से काना मामा मिल जाता है। कुछ तो ज्ञान मिल ही जाता है, भले ही अधूरा ज्ञान हो। कहा जाता है कि आधा-अधूरा ज्ञान काफी खतरनाक होता है और आगे चलकर यही होता भी है इन बच्चों के साथ।
ऐसे स्कूलों से पास बच्चे आज की शिक्षा-प्रणाली में कहीं भी नहीं ठहरते और इस तरह से बेरोजगारी की दर में बढ़ोतरी करते हैं। इसके बदले, अगर इन बच्चों को अच्छी और मूल्यपरक शिक्षा कम कीमत पर सरकार के द्वार उपलब्ध कराई जाती तो इसके कई लाभ होते, लेकिन सरकार में शामिल जनप्रतिनिधियों का बिजनेस फिर कैसे चलता। अगर, इस देश के बच्चे शिक्षित हो जायें, तो फिर ये नेतागण उन्हें जाति,धर्म, संप्रदाय और प्रांत के आधार पर कैसे बांटकर अपना बोट बैंक बनायेंगे, जो अब तक ये करते आए हैं और उसी का परिणाम है कि इस देश के बाद आजाद हुआ देश आज कहां से कहां पहुंच गया है जबकि इस देश के निवासियों को दिन-प्रतिदिन एक नए घोटालों की ख़बर के अलावा कुछ और सुनने को मिलता ही नहीं। जो भी ईमानदार ऑफिसर काम करना चाहता है उसे मौजूदा व्यवस्था में इतना परेशान किया जाता है कि या तो वह चुपचाप खिसक लेता है या मानसिक रोगी बन जाता है।
जबकि हमारे देश की संविधान के अनुसार, 14 साल तक के प्रत्येक बच्चों को मुफ्त शिक्षा का अधिकार प्राप्त है। एक तरफ, देश के राजनीतिज्ञ अपने लिए तमाम सुविधाओं का जुगाड़ कर लेते हैं और दूसरी तरफ, इस देश के लोगों के लिए ना ही कोई शिक्षा का प्रबंध है और ना ही चिकित्सा या अन्य सुविधाओं का। देश में शिक्षक और छात्र का अनुपात को किसी भी मायने में उचित नहीं ठहराया जा सकता। जानवरों की तरह एक ही कमरे में सरकारी स्कूलों में कई-कई कक्षायें चलती हैं और मास्टर साहब या तो खैनी मलते हैं आपसी बातचीत में मशगूल रहते हैं, जब नींद खुली तो एक-आध डंडा छात्रों पर बरसा देते हैं। शाम को या छुट्टी के समय में गिनती कराके अपनी ड्यूटी से मुक्ति पा लेते हैं। हमारे यहां के अधिकांश सरकारी स्कूलों का यही हाल है। ऐसे शिक्षक छात्रों को क्या शिक्षा देते होंगे, ये तो वही जानें।
ऐसे नहीं है कि सारे शिक्षक कामचोर ही हैं लेकिन उन्हें भी इस व्यवस्था की हवा लग गई है। जब वे देखते हैं कि पढ़ाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला तो वे भी अपना काम कम और स्थानीय राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगते हैं। इस सबका असर हमारी शिक्षा प्रणाली पर पड़ा है।
उच्च विद्यालयों का भी कमोबेश एक जैसा ही हाल है। कई जगह, राज्य सरकारों ने शिक्षा मित्रों की बहाली की है उनमें ज्यादातर संख्या ऐसे लोगों की है जिन्हें किन्हीं कारणों की वजह से कहीं रोजगार नहीं मिला या फिर महानगरों में दैनिक मजदूरी कर रहे थे, ऐसे लोग शिक्षा-व्यवस्था का अंग बन गए और उनमें सहायक बने स्थानीय सत्ताधारी दलों के नेता, जिन्होंने रुपये-पैसे लेकर इन लोगों को बहाल कराया।
देश की राजधानी दिल्ली में स्थित दिल्ली विश्वविद्यालय का वैसे तो काफी नाम है लेकिन यहां भी परीक्षा-विभाग की गड़बड़ियों के कारण कई अच्छे छात्रों को इसका परिणाम भुगतना पड़ा है। मैंने खुद लॉ सेंटर वन से लॉ किया है। मेरा अपना अनुभव यही रहा है कि परीक्षा-विभाग में बहुत ज्यादा सुधार की जरूरत है वरना इसी तरह से विद्यार्थियों को परेशानियों का सामना होता रहेगा। यहां पास को फेल और फेल को पास या सही तरीके से कॉपी जांच नहीं की जाती है और ऐसे एक नहीं कई मामले देखने को मिले हैं। कई विद्यार्थियों ने तो कोर्ट का भी सहारा लिया है और तब जाकर न्याय मिला है। मैं अपनी बात कहूं तो मेरा अनुभव बड़ा ही खट्टा रहा है।
सूचना के अधिकार का उपयोग करके छात्र अपनी कॉपी देख सकते हैं लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय ने इसके लिए काफी मोटी फीस कर दी है। पिछले साल तक जो फीस 10 रुपये थी वो अब बढ़कर 750 प्रति पेपर कर दिया गया है, ऐसे में एक गरीब विद्यार्थी कहां से इतना पैसा लायेगा। इसके अलावा, पुनर्मूल्यांकन में भी प्रति पेपर 750 रुपये चार्ज कर दिया गया है, यह सब विद्यार्थी को इससे रोकने के अलावा और कुछ नहीं है। अगर समय रहते इस स्थिति को नहीं बदला गया तो एकदिन निश्चित तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय की जो स्थिति आज है वो कल नहीं रहेगी।
सरकार को चाहिए कि वो इस दिशा में कदम उठाये ना कि सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से घबराकर इसे रोकने का प्रयास करे, जो कि सरकार की कुंठा को ज्यादा दर्शाती है। आज तक इस देश की सत्ता में शामिल रहे विभिन्न दलों ने स्थानीय मातृभाषा में पढ़ाई की व्यवस्था के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किया है।
अभी भी व्यावसायिक शिक्षा का सारी पढ़ाई अंग्रेजी में ही होती है जबकि अन्य देशों में ऐसा नहीं है। फिर हम किस मुंह से अपने को आजाद मानते हैं। जब तक इस देश का एक-एक बच्चा शिक्षित नहीं होगा तब तक हमें सच्ची आजादी नहीं मिल सकती। इसके लिए जरूरी है गंभीर प्रयासों की ना कि बयानजबाजी की, जिसमें इस देश के नेता पारंगत हैं।
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