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नया की बात ही कुछ और है

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

केंद्रीय कोयला मंत्री, श्री जयप्रकाश जायसवाल द्वारा अपने जन्मदिन पर हाल ही में दिए गए विवादास्पद बयान, “नई-नई जीत, बिल्कुल नई बीबी की तरह होती है, जैसे समय के साथ जीत पुरानी होती जाती है, वैसी ही बीबी पुरानी होने के बाद उसमें वह मजा नहीं रह जाता।” उनकी घटिया मानसिकता को दर्शाता है। यह भारतीय समाज के पुरुषवादी दृष्टिकोण को भी जाहिर करता है।

यह सही है कि नया-नया जब कोई चीज होता है तो लोग उसके प्रति ज्यादा चिंतित होते हैं और समय के साथ-साथ जैसे-जैसे वह पुरानी पड़ती चली जाती है वैसे-वैसे उसके प्रति उतनी चिंता भी नहीं रहती। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि पुरानी पड़ जाने पर लोग उसे फेंक देते हैं।

अगर, हम जायसवाल के शब्दों को हुबहू अर्थ निकालें तो इसके कई गलत अर्थ हो सकते हैं। खुद उनका ही दामाद अगर उन्हें यह कहे कि श्वसुर जी अब आपकी बिटिया में वो मजा नहीं रहा, तो कैसा लगेगा। एक जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति को ऐसा बोलना शोभा नहीं देता। निजी तौर पर वो क्या सोचते हैं, इसका मतलब नहीं है। लेकिन यहां वो एक केंद्रीय मंत्री की हैसियत से बोल रहे थे और इसका निहितार्थ लोग अपने-अपने अनुसार निकाल रहे थे, जो कि निहायत ही गलत है।

भारतीय समाज में सभी को आदर की दृष्टि से देखा जाता है। अपने यहां बड़े-बुजुर्गों के प्रति सम्मान का भाव प्रकट किया जाता है और वे जैसे भी हों, एक उम्रदराज व्यक्ति से इस तरह की बात कभी नहीं की जाती। भारतीय समाज वसुधैव कुटुंबकम पर आधारित है और हम सारे संसार को अपने कुटुंब की तरह मानते हैं।

एक छोटे बच्चे की नजर से भी देखें तो हम पायेंगे कि चीजों को देखने का अपना-अपना एक नज़रिया होता है। एक बच्चा भी नए सामान के प्रति ज्यादा सजग होता है और पुराना होते ही वो उसके प्रति पहले जैसा चिंतित नहीं होता। नया-नया जख्म भी ऐसा ही होता है। अगर कोई दुर्घटना घटी हो तो नए-नए में उसका सर्वाधिक असर होता है लेकिन समय बीतने के साथ ही आदमी फिर से अपनी दुनिया में खो जाता है और सब कुछ पुराने ठर्रे पर आ जाता है। जिंदगी फिर से उसी रफ्तार से चलने लगती है।

लेकिन केंद्रीय मंत्री का यह बयान किसी के गले उतरने वाला नहीं है। भले ही उन्होंने सौ फीसदी सच्ची बात कही हो। कहा तो यहां तक जाता है कि समय के साथ-साथ सच्चा प्यार और निखरता एवं जवां होता है, फिर इसमें पुराना पड़ने की बात कहां से आ गई।

आज पश्चिमी संस्कृति का ही असर है कि महानगरों में लोग अपने बूठे मां-बाप को घर में जगह नहीं देना चाहते। जिस मां-बाप ने बड़े ही अरमानों से बचपन में उंगली पकड़कर चलना सिखाया था, बड़े होने पर वो बुठापे का सहारा होगा। उसे ही बड़े होकर ये बच्चे घर से बाहर कर देते हैं। यह कहां का न्याय है? मेरा तो यही मानना है कि जायसवाल ने जिस किसी भी अंदाज में यह बात कही हो, यह किसी भी स्तर पर एक केंद्रीय और जिम्मेदार राजनेता के मुंह से शोभा नहीं देता। देश के लोगों पर उसका गलत असर पड़ेगा। इसके लिए देश भर से उन्हें माफी मांगनी चाहिए।

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