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वो बूढ़ा सच ही तो कहता था………………..

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हरेश कुमार

जमाना उसे पागल कहता है लेकिन वास्तव में वो ऐसा है नहीं। उसने भी एक सपना बुना था, उसकी आखें भी हमारी तरह एक सपना देखती थी, एक हसीन सपना, जिसके लिए उसने रात-दिन एक करके कुछ पैसे बनाए थे। पर उस पैसे पर जमाने के ठेकेदारों की गिद्ध निगाहें लग गई थीं वो पैसे के साथ-साथ उसकी इज्जत से भी खलने लगे थे। पहले तो उसने इसे समझा ही नहीं लकिन एक दिन तो हद ही हो गई दुनिया के कथित ठेकेदारों ने उसे उसकी ही जमीन से बदखल कर दिया, जिसे उसने वर्षों की मेहनत से कमाई और पाई-पाई करके खरीदी थी, जिस पर लगी फसल को देख कर उसके सारे दुख दूर हा जाते थे, अब उसके हाथ से निकल गए, क्योंकि उसके बगल से सरकार ने नई परियोजना चालू की थी जिसरे कारण उस जमीन की कीमत अचानक से बढ़ गई थी और उसे हथियाने के लिए प्रशासन के साथ मिलकर उसके अपने लोगों ने ही चंद पैसों की खातिर उसे पागल घोषित कर दिया। अब वो आम इंसान नहीं था, वो एक मानसिक रोगी था जिसे दुनिया ने अपने हिसाब से नाम दिया था। अब वो ना तो हंसता है और ना ही रोता है बस एक बेबस निगाहों से उस जमीन को देखता है जो कल तक उसकी अपनी जमीन थी लेकिन अब वो नहीं रही…………………………. कभी हंसता………………… कभी सर के बाल नोचता वो जमाने की सच्चाई से रूबरू हो गया था। जहां लोग पैसों की खातिर अपनों की कत्ल कर देते हैं। रिश्ते-नाते सब दिखावटी हैं आज के समय में सिर्फ पैसा बोलता है…………. यही वो बता रहा है………………काश हम सब समझ पाते उसकी भावनाओं को…………………………..

जमाने भर के दर्दो-गम को अपने दिल में समेटे है वो। दूसरों को क्या मालूम कि वो भी कभी जीवन में एक सफल आदमी था। उसका भी एक भरा-पूरा परिवार था। उसकी आंखें चमक उठती थी, लेकिन फिर ना जाने क्या हुआ एक दिन कि उसका भरा-पूरा परिवार शहर में जाने को आतुर हो गया। उसने मना किया था, अपने बच्चों से शहर में कोई किसी का नहीं होता, वहां किसी के पास समय नहीं होता कि वो अपने ही घर के अन्य सदस्यों से बात करे, यहां तक कि पति-पत्नी में भी बात किए कई दिन हो जाते हैं। चूंकि, शहर में सब लोग काम पर जाने वाले होते हैं, क्योंकि ऐसा वो अपनी खुशी से नहीं, घर के खर्चे को चलाने की मजबूरी के तहत करते हैं और इस कारण से कभी-कभार ही पर्व-त्यौहार के अवसर पर ही साल में एक-आध बार ऐसा मौका आता है कि घर के सारे सदस्य एक जगह पर एकत्र होकर एक-दूसरे से बात कर सकें।

लेकिन घर के सारे बच्चे उसे बूढ़ा खूसट कहने लगे। बच्चों को अब टेलीविजन का चस्का जो लग गया था, उन्हें अब भांगड़ा पसंद आने लगा था, अब गांव की नौटंकी बेकार और बोझिल लगने लगी थी। घर के लोगों का कहना था कि गांव में अब रोजगार का कोई साधन नहीं, यहां तक कि कोई बीमार हो जाता है तो समय पर चिकित्सा नहीं मिलने के कारण कई लोगों की अचानक से मुत्यु हो जाती है। शहर में चले जाने पर बच्चों का एडमिशन अच्छे स्कूलों में हो जाएगा और उनका भविष्य भी बेहतर हो जाएगा।

दूसरी तरफ, बूढ़े को यह आशंका थी कि बच्चे शहर जाकर वहां के वातावरण में अपने आप को ठाल नहीं पायेंगे। गांव के सीधे-सादे लोगों को शहरी वातावरण कभी रास आएगा इसकी आशंका थी, और हो भी क्यों ना वो खुद एक बार नहीं कई बार मन मार के शहर गया लेकिन उसका मन शहर की तेज रफ्तार जिंदगी में कभी रम ना सका और फिर भाग कर गांव आ गया। शहर जाकर उसकी सारी जमा-पूंजी कुछ दिनों में खत्म हो गई और किसी ने भी उसकी मदद नहीं कि यहां तक कि जिनके भरोसे वो गया था, वो भी झूठा साबित हुआ। तब जाकर बूढ़े को अक्ल आई कि यहां कोई किसी का नहीं होता। सब बस पैसे के पीछे भागते हैं और एक अबूझ सी दुनिया के वासी हैं जिसमें किसी के पास भी किसी के लिए समय नहीं है। चाहे कोई मर जाए लेकिन उसे ऑफिस से जल्द से छुट्टी नहीं मिलेगी, कारण कि अगर प्रोजेक्ट समय पर पूरा नहीं हुआ तो कंपनी को करोड़ों का घाटा होगा और उसके कारण लाखों लोगों के पेट पर लात पड़ेगी। जिसे जाना था वो तो दुनिया से चला गया। जो है उसकी चिंता तो करनी है सबको।

शहर की इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी में हर कोई अपने आप को इसके अनुकूल नहीं बना सकता है और जिसने अपने आप को इसके अनुकूल बना लिया वो शहरी हो गया। गांव के लोग उसके लिए बेवकूफ और गंवार हो जाते हैं जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। कुछ लोगों की समस्यायें हैं और कुछ गांव से जुड़ी भावनायें जो उनको गांव से बाहर निकलने नहीं देती। चाहे लाख विपत्ति आए, गांव में आज भी लोग एक-दूसरे के दुख-सुख में शामिल होना अपना पुनीत कर्तव्य मानते हैं जबकि शहर में तो अपने लिए भी समय नहीं होता।

अब जाकर बच्चों को लगता है कि बूढ़ा सही ही तो कह रहा था, शहर में आकर वो सब कुछ मिला जिसका उनको इंतजार था, जिसकी वर्षों से तमन्ना थी लेकिन एक चीज जो नहीं मिली वो था अपनों का प्यार जो उनसे छूट गया और शायद ही वो कभी मिले क्योंकि यहां कभी किसी के पास किसी के लिए समय नहीं होता है……………………।

गांव में थे तो उतना बड़ा मकान औऱ खुली हवा में सांस लेते थे, शहर आते ही एक ही कमरे में सबको रहना मजबूरी हो गई थी क्योंकि इतनी महंगाई में सभी के लिए अलग से कमरा की व्यवस्था कहां से होती। सो, मन मारकर भविष्य संवारने के लोभ से एक ही कमरे के घर में रहना इन सबों ने कबूल कर लिया था। गांव होता तो आसमान छत पर उठा लेते लेकिन यहां किससे शिकायत करते। गांव में जो प्रतिष्ठा थी सो अलग, यहां तो बड़ी-बड़ी अट्टालिकायें, गगनचुंबी इमारतें। एक से बढ़कर एक कोठियां। कोई किसी की सुनने वाला नहीं किसी को किसी परवाह नहीं। मन दुखी भी हो तो किसी से अपनी बात कह नहीं सकते जबकि गांव के चौपाल पर सुबह-शाम चाय की चुस्की के साथ जमाने भर की बातें होती थी। अब जाकर बच्चों को भी लगने लगा था कि पापा (बूढ़ा जिसे वो सब गुस्से में पागल तक कह देते थे) सही थे, लेकिन अब पछताए होत क्या। इधर ये लोग शहर आए और उधर समाज के भे़ड़ियों की निगाहें इनकी मंहगी जमीनों पर पड़ चुकी थी, वे सारे कब्जे कर लिए थे। एक कहावत है ना कि ना घर का ना घाट का सो, शहर आते ही ऐसा हुआ कि कहीं के ना रह गए।

और एक दिन तो हद ही हो गई। शहर में बढ़ते खर्चे के कारण बुढ़ापे में भी काम पर जाना होता था ऐसे ही में एक दिन बस पर चढ़ते समय बूढ़े की पांव फिसल गई और वो बस के नीचे आ गया। किसी को कहां फुर्सत कि वो मुड़कर देखता कि कौन गिरा है आखिर सबको काम पर जल्दी पहुंचना जो है। शाम को जब पापा घर नहीं आए तो बच्चों ने खोजना शुरू किया तो किसी ने बताया कि एक बूढ़ा बस के नीचे आ गया था उसे पुलिस ने वालों ने शवदाह गृह में रखवा दिया है। किस्मत देखिए जिसके दरवाजे पर हर समय लोगों की भीड़ लगी होती थी, कोई काका कहकर पुकारता था, तो किसी के लिए वो बाप-दादा से कम नहीं था लेकिन आज ऐसी स्थि्ति आ गई कि मरने के बाद कोई देखने तक ना आया। गांव और शहर में यही फर्क है और अब बच्चे शहर की जिंदगी से उब कर फिर से गांव के शांत माहौल में वापस जाना चाहते हैं क्योंकि यहां उनका दिल नहीं लगता। यहां आकर सभी कुछ तो खत्म हो गया। अब कहां कुछ बाकि रह गया था खोने को……………………. शहर में, बेचैन सा माहौल है चारों तरफ…………………….. क्या इसमें कोई भी शांति से जीवन व्यतीत कर सकता है

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