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अपने ही घर में बेगानी हिंदी

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14 सितंबर हिंदी श्राद्ध दिवस
हरेश कुमार
भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए देवनागिरी लिपि में लिखी गई हिंदी भाषा को संपूर्ण भारत की प्रशासनिक भाषा के तौर पर स्वीकार किए जाने की अनुशंसा की थी। इसके पीछे गांधी जी का यह विचार था कि हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जो संपूर्ण भारत को एकसूत्र में पिरो सकती है। गांधी जी की इसी भावना को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया था और तभी से प्रत्येक साल हम 14 सितंबर को हिंदी दिवस के तौर पर मनाते हैं।

लेकिन क्या बिडंवना है कि 125 करोड़ से अधिक की आबादी में 87 प्रतिशत से अधिक लोगों द्वारा बोली और 90 प्रतिशत से अधिक भारतीयों द्वारा समझी जाने वाली भाषा मात्र 5-6 प्रतिशत लोगों द्वारा बोले और इस्तेमाल में लाई जाने वाली अंग्रेजी भाषा से पिछड़ गई है। इसका कारण जानने के लिए हमें ज्यादा प्रयास करने की जरूरत नहीं है और ना ही गंभीर मंथन की जरूरत है। हमारे देश के नेताओं ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दे दिया लेकिन प्रशासनिक कामकाज की भाषा अंग्रेजी ही बनी रही। अंग्रेजी स्कूलों से पढ़कर निकले नौकरशाहों को कभी यह जरूरत ही महसूस नहीं हुई कि हिंदी को उसका वास्तविक अधिकार दिये जाने की जरूरत है तभी वास्तव में इस देश का आम-आदमी आजादी का लाभ प्राप्त कर सकेगा।

आप इस देश में कहीं भी चले जाइये किसी भी ऑफिस में यहां तक कि सरकारी फाइलों में कामकाज का ज्यादातर भाग अंग्रेजी में ही होता है। आज भी व्यावसायिक स्तर की पढ़ाई अंग्रेजी में ही होती है। यहां तक कि चिकित्सा, इंजीनियरिंग, वकालत जैसे पेशे की पढ़ाई के लिए आजादी के 65 साल बीत जाने के बाद भी अच्छी किताबों का अभाव है। ऐसा नहीं है कि हमारे यहां हिंदी में लिखने वालों की कमी है। सरकार की तरफ से इस बारे में कोई प्रयास किया ही नहीं गया है और जो भी प्रयास हुए हैं, वे सारे आधे-अधूरे हुए हैं। क्योंकि सरकार में शामिल दल और नेताओं को लगता है कि हिंदी को उसका अधिकार मिल जाने से एक बड़े तबके पर से हमारा राजपाट ऐसे ही खत्म हो जाएगा जैसे अंग्रेजों का खत्म हो गया। इस सोच के पीछे स्पष्ट कारण है। लोगों को अपनी जुबान में किताबें हासिल होने से वे गुलामी की मानसिकता से बाहर निकल सकेंगे और उन्हें भी लगेगा कि हां, हम भी कर सकते हैं, हमारे बच्चे भी पढ़ सकते हैं।

मैकाले ने इस देश को गुलामी की जंजीरों से जकड़ने के लिए अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार की वकालत की थी और आजादी के बाद भी देश के नेताओं ने इससे मुक्ति पाने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया। हां, यह सही है कि इस देश में विभिन्न भाषा-भाषी लोग हैं, लेकिन एकमात्र हिंदी ही वह भाषा है जो सभी को एकसूत्र में पिरो सकती है।

आज भी कोर्ट (न्यायालयों) में वकील अंग्रेजी में बहस करते हैं। गरीब और अशिक्षित या कम पढ़ा-लिखा तबका जो हिंदी समझ सकता है उसे मालूम ही नहीं होता कि वकील क्या बहस कर रहे हैं। उसे जो समझा दिया जाता है वो समझ लेता है। ज्यादा गिटर-पिटर करने पर वकील उसे डांट देता है, तुम नहीं समझोगे। कई बार तो वकील के द्वारा मुकदमे की पैरवी सही तरीके से नहीं करने के कारण मुवक्किल केस हार जाता है और बेवजह उसे सजा हो जाती है। जो अपराध उसने किया ही नहीं उसका अपराधी ठहरा दिया जाता है और यही कारण है कि अंतत: कुछ लोग प्रशासनिक नाकामयाबी के कारण हथियार उठा लेते हैं और नक्सली समूह उनके भोलेपन का फायदा उठाते हैं।
वर्तमान व्यवस्था में हिंदी माध्यम से पढ़ाई करने वाले बच्चे कुंठा के शिकार हो जाते हैं और इसके लिए सरकार और उसकी शिक्षा प्रणाली दोषी है। अंग्रेजी माध्यमों से पढ़े-लिखे लड़के कम जानकारी के बावजूद भी अच्छी नौकरी पा जाते हैं जबकि हिंदी जानने वाले और गांव से आने वाले बच्चे इनके मुकाबले में पिछड़ जाते हैं और यह भारत की एक नंगी सच्चाई है।

यहां तक कि हिंदी दिवस पर नेता और अधिकारीगण हिंदी को बढ़ाने के लिए जो भाषणा देते हैं वह भी अधिकांश अंग्रेजी में पढ़े-लिखे लोगों द्वारा लिखा गया या अंग्रेजी में ही होता है और इस तरह से हिंदी दिवस एक तरह से भारतीय सनातन धर्म में मनाए जाने वाले श्राद्ध पर्व की तरह सा हो गया है।

गौरतलब है कि भारतीय सनातन धर्म में अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए साल में एक बार पिंडदान (पितृपक्ष में) का आयोजन किया जाता है और हिंदी के साथ भी सरकार ऐसा ही कर रही है। प्रत्येक साल 14 सितंबर को इसका आयोजन किया जाता है। कहीं-कहीं सरकारी कार्यालयों में हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है तो कहीं पूरे महीने हिंदी के नाम पर करोड़ों रुपये सरकारी कोष से बहा दिए जाते हैं। लेकिन हिंदी के उद्धार के लिए कुछ नहीं किया जाता। हिंदी के साथ आजादी के बाद से लगातार सौतेला व्यवहार किया जाता है। इसे अंग्रेजी की दासी बना दिया गया है।

आखिर कब तक हिंदी बोलने औऱ पढ़ने-लिखने वाले इतने बड़े समूह को बेवकूफ बनाया जाता रहेगा।
आज भी हिंदी फिल्में करोड़ों रुपये का व्यापार करती हैं। हिंदी समाचारपत्र, हिंदी वेबसाइट, हिंदी न्यूज़ चैनल जब मुनाफा कमा सकती है तो हिंदी से पढ़ा-लिखा व्यक्ति सही नौकरी क्यों नहीं पाता है? यह प्रश्न लाख टके का है। हिंदी चैनलों से लेकर समाचारपत्रों में अंग्रेजीदां लोगों की ही बादशाहत कायम है।

सरकारी स्कूलों में ना तो अंग्रेजी को पढ़ाने की सुविधा है और ना ही सरकार ने इस संबंध में उचित व्यवस्था की है। भारत में सरकार शिक्षा पर सबसे कम खर्च करती है। गरीब मां-बाप की इतनी औकाद नहीं कि वो अपने बच्चों को महंगे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाई का खर्च उठा सके। नतीजतन वह किसी तरह से सरकारी स्कूलों में आधी-अधूरी शिक्षा पाता है और बाद में प्रतियोगिता परीक्षा से लेकर जिंदगी की हर जंग में अंग्रेजी स्कूल से पढ़ाई करके निकले बच्चों से पिछड़ जाता है और इसका परिणाम यह होता है कि वह आगे चलकर हिंदी से एक तरह से तौबा कर लेता है और अपने बच्चों को किसी तरह से, चाहे इसके लिए उसे अन्य खर्चों में कटौती ही क्यों ना करनी पड़े, अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाता है और इन सबके कारण हिंदी आज अपने ही घर में बेगानी हो गई है।

हिंदी की प्रतिष्ठा तभी बहाल हो सकती है, जब उसे उसका उचित हक मिले। सरकार अपने स्तर पर गंभीर प्रयास करे। सभी व्यावसायिक शिक्षा हिंदी में उपलब्ध हो। अभी हाल ही में, भारतीय प्रशासनिक सेवा में भर्ती के लिए होने वाली परीक्षा के लिए अंग्रेजी भाषा का क्षान होना अनिवार्य कर दिया गया है और इस संबध में परिवर्तन भी किए गए हैं। इन सबके कारण ग्रामीण अंचलों से आने वाले विद्यार्थियों का चुनाव भारतीय प्रशासनिक सेवा में नहीं हो सकेगा। क्योंकि उसे अंग्रेजी भाषा का ज्ञान नहीं है। यह भारत की हकीकत है।

भारत का हर आम-आदमी पूछ रहा है आखिर कब तक हिंदी को उसके वास्तविक अधिकार से वंचित किया जाता रहेगा? क्या सरकार से पास इसका कोई जवाब है?

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