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एक देश, दो कानून और धर्मनिरपेक्षता की बदलती परिभाषा

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार
भारत विश्व में अकेला ऐसा देश है जहां गरीब लोगों के लिए अलग तो अमीर लोगों के लिए अलग कानून है। कहने का अर्थ है कि गरीबों को न्याय पाने के लिए जहां सारी जिंदगी कम पड़ जाती है और उन्हें शायद ही न्याय मिलता हो, एक-आध अपवादों को छोड़कर। वहीं पर, दूसरी तरफ, इसी देश में एक सुविधासंपन्न तबका भी है जिसे कानून का जरा भी भय नहीं है और वह अपनी सुविधानुसार कानून की परिभाषा तय करता है और जरूरत पड़ने पर कानून का उल्लंघन करना अपनी शान समझता है। उसकी शान में गुस्ताखी करना स्थानीय प्रशासन को भी कई बार भारी पड़ जाता है।
अभी तक, कोर्ट के कई फैसलों से यह बात साबित भी हो जाती है। चाहे आप संजीव नंदा के केस को लें ले या किसी अन्य प्रभावशाली व्यक्ति जिस पर भारतीय दंड संहिता 1860 के उल्लंघन का आरोप हो। प्रभावशाली व्यक्ति के परिवारजनों को कानून का कोई भय नहीं होता, उसे पहले से फैसले की जानकारी होती है, क्योंकि वो ताकत के नशे में चूर होता है। उसे यह बात पता है कि गवाह को कोर्ट नहीं पहुंचने दिया जाएगा और अगर किसी ने हिम्मत की भी तो उसकी जान-माल की खैर नहीं। ऐसे में, भला किसे अपनी जान-माल की परवाह नहीं होगी। एक तो पहले से जो गया, सो गया। और अपराधी के खिलाफ बयान दो, तो फिर पूरे परिवार को परेशानी। प्रभावशाली व्यक्ति के परिवार का स्थानीय पुलिस-प्रशासन से लेकर हर जगह पर घुसपैठ होता है और वो सबूतों को समय रहते नष्ट कर देता है, जिससे उसे इस बात की कोई आशंका नहीं होती है कि भविष्य में उच्च न्यायलयों में उसका कुछ बिगड़ेगा। आजादी के बाद से ही ऐसा हो रहा है। एक-आध मामलों में गरीब व पीड़ित परिवार का भाग्य कहिए, नहीं तो अपराधी की बदकिस्मती जो कानून की नज़र में वो अपराधी साबित हो जाता हैं और उसे सजा भुगतनी होती है, लेकिन यहां भी जेल में उनके लिए तमाम तरह की व्यवस्था होती है। ऐसे लोग स्वास्थ्य का बहाना बनाकर बाहर निकल जाते हैं और अपनी मनमर्जी चलाते हैं और समय पाते ही गवाहों को धमकाना शुरू कर देते हैं। उन्हें कानून का कोई भय नहीं होता।
एक भी ऐसा केस नहीं जहां पर किसी गरीब को समय रहते न्याय मिला हो।
उदाहरण के लिए, नैना साहनी तंदूर हत्याकांड, मधुमिता शुक्ला से लेकर हाल ही में आत्महत्या करने वाली गीतिका शर्मा और अनुराधा बाली उर्फ फिजा से जुड़े राजनीतिक तार को देखकर कोई भी आसानी से समझ सकता है कि आपराधिक छवि के राजनीतिज्ञों को कानून का कितना भय सताता है। और ये सब तो ऐसे मामले हैं जो मीडिया में आ गए। ऐसे ना जाने कितने मामले होंगे जिसका समाज में परिवार की प्रतिष्ठा पर आघात होने के डर से पीड़िता मुंह नहीं खोलती है।
अनराधा बाली उर्फ फिजा ने कभी हरियाणा के उपमुख्यमंत्री रहे चंद्रमोहन विश्नोई उर्फ चांद (हरियाणा के कद्दावर नेता रहे भजनलाल के सुपुत्र व सांसद, कुलदीप विश्नोई के भाई) से धर्म परिवर्तन करके शादी की और कुछ दिनों के बाद ही, दोनों में तलाक हो गया। चंद्रमोहन तो फिर से विश्नोई समाज में आ गए लेकिन फिजा को इस घटना ने इस कदर से तोड़कर रख दिया कि वह कहीं कि ना रह सकी। समाज से भी बहिष्कृत हो गई और लोगों ने उसके बारे में तरह-तरह से उपहास उड़ाया। इसमें मीडिया की भी भूमिका रही है, जिसने टीआरपी के लिए फिजा की जिंदगी के हर पहलुओं को इस तरह से दिखाया, जैसे वो कोई हूर हो और फिर एकाकीपन की जिंदगी जीते समय भूल गया। उसे उसके हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया।
ऐसी ही कहानी गीतिका शर्मा की भी है। हरियाणा के गृहराज्यमंत्री पद को सुशोभित कर चुके गोपाल कांडा ने उसका इस तरह से मानसिक औऱ शारीरिक शोषण किया कि वह अंतत: आत्महत्या को मजबूर हो गई, क्योंकि इसके अलावा उसके पास अब कोई चारा भी तो ना था। कांडा लगातार तीन दिनों तक मीडिया में बयान देता रहा औऱ सबूतों को नष्ट करने का उसे भरपूर समय मिला।
अगर कांडा की जगह कोई अन्य व्यक्ति होता तो पुलिस उसे कब का गिरफ्तार करके जेल में डाल देती। एक तरफ आत्महत्या से पहले गीतिका ने अपने सुसाइड नोट में गोपाल कांडा और अरुणा चड्ढ़ा पर खुले आम आरोप लगाया कि इन दोनों ने उसे इस कदर परेशान कर दिया कि वह आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो गई।
हालांकि, मधुमिता शुक्ला हत्याकांड में उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय से उम्र कैद की सजा हो चुकी है।
इसके अलावा, इस देश में दो तरह की धर्मनिरपेक्ष नेता हैं, जो अपनी-अपनी सुविधानुसार इसकी व्याख्या भी समय-समय पर करते-रहते हैं। मुंबई में रजा कमेटी के द्वारा असम के दंगो के खिलाफ आयोजित सभा में समर्थक पेट्रॉल भरा कैन लेकर आए और उन्होंने पूरे शहर में उपद्रव मचाया तथा पुलिसकर्मियों पर भी हमले किए, लेकिन कांग्रेस और उसकी समर्थक पार्टियों ने इस पर कुछ नहीं बोला। ऐसे लोग बोल भी क्या सकते हैं? जो सत्ता के लिए दूसरे देश के नागरिकों को देश की जमीन पर बसाते हैं और देश के लोगों को उनकी जमीन से सिर्फ इसलिए हटाते हैं कि वे इन्हें वोट नहीं देते।
कभी Indira is India and India is Indira का नारा देने वाले असम के मुख्यमंत्री और आपातकाल के समय (1975-77) कांग्रेस अध्यक्ष रहे, देव कांत बरुआ ने अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों के बल पर सत्ता में अपनी पकड़ को मजबूत किया औऱ आज यही बांग्लादेशी मुसलमान स्थानीय बोडो आदिवासियों के संशाधनों पर कब्जा करके उन्हें ही अल्पसंख्यक बनाने पर तुल गए हैं और उस पर से राज्य सरकार अवैध आप्रवासियों के समर्थन में है जिससे यह मामला सुलझने के बजाए और भी उलझ गया है। आज से 25 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने अवैध बांग्लादेशी आप्रवासियों को पहचान करके उन्हें उनके देश भेजने की बात कही थी। गौरतलब है कि 1983 में कांग्रेस सरकार ने इसे अप्रभावी बनाने के लिए, आईएमडीटी एक्ट बनाया था, उसे सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था और सरकार को स्पष्ट आदेश दिया था कि वह जितनी जल्दी हो सके अवैध बांग्लादेशियों की पहचान कराके उन्हें उसके देश वापस भेजने की व्यवस्था करे। इसके बाद भी, सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। फिर 2008 में गुवाहाटी उच्च न्यायलय ने भी अवैध बांग्लादेशी नागरिकों पर कड़ी टिप्पणी की थी।
आज इन अवैध बांग्लादेशी नागरिकों के पास राशन कार्ड से लेकर तमाम तरह के दस्तावेज हैं जिन्हें उनको स्थानीय राजनेताओं ने वोट पाने के एवज में मुहैया कराया है। असम के ही एक अन्य कांग्रेसी सांसद रहे और लॉटरी किंग, मणि कुमार सुब्बा नेपाली नागरिक बताए जाते हैं। कई बांग्लादेशी भी ऐसे पकड़े गए हैं जो हाल में हुए विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं।
अगर सरकार समय रहते नहीं चेतेगी तो उत्तर-पूर्व का यह हिस्सा कहीं एक बार फिर से ना अशांत हो जाए, इसकी आशंका प्रबल होती जा रही है। सरकार को वोट बैंक के स्थान पर देश हित को तरजीह देनी चाहिए। और एक न्यायसंगत व्यवस्था करनी चाहिए जिससे सभी पक्षों को मंजूर हो सके। इसके लिए अगर जरूरी हो तो अंतरराष्ट्रीय कानूनों का भी सहारा लिया जाना चाहिए और अगर जरूरी हो तो अवैध बांग्लादेशियों को उनके देश में रोजगार दिलाने में भारत सरकार को सहायता करनी चाहिए। नहीं तो हमारा देश सिर्फ एक धर्मशाला बनकर रह जाएगा और एक दिन ऐसा भी आयेगा कि यहां के लोग उत्तर-पूर्व के राज्य की तरह ही अल्पसंख्यक हो जायेंगे।
अकेले उत्तर प्रदेश में ही पिछले चार महीनों में कई बार दंगा हो चुका है और प्रशासन सख्ती करने के बजाए उसे और सांप्रदायिक रंग देने में लगा हुआ है जिससे कि आने वाले 2014 के लोकसभा चुनाव में इसका लाभ लिया जा सके। किसी अन्य देश में इस तरह का उदाहरण आपको नहीं मिलेगा।
चाहे उत्तर प्रदेश हो या असम या कोई अन्य प्रदेश, वोट बैंक के ये कथित ठेकेदार वोट को पाने के लिए कुछ भी कर गुजर सकते हैं। ऐसे लोग आजादी के 65 साल गुजर जाने के बाद भी जाति-प्रांत-धर्म के नाम पर समाज को बांट कर वोट का जुगाड़ करते हैं।
वहीं, दूसरी तरफ, पाकिस्तान में रोज अल्पसंख्यक हिन्दूओं पर हमले हो रहे हैं। इनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी जा रही है। यहां तक कि, खुलेआम टीवी पर प्रशासन किया जा रहा है। कोई बी दिन ऐसा नहीं जब पाकिस्तान से हिन्दूओं का जत्था भारत में प्रवेश नहीं करता हो और वो फिर से वहां नहीं जाने की बात नहीं करता। उसे कोई स्वतंत्रता हासिल नहीं है जबकि भारत में मुसलमानों को हर तरह की स्वतंत्रता प्राप्त है। आजादी के पाकिस्तान में हिन्दूओं की आबादी अच्छी-खासी थी जो आज घटकर 1 से 2 प्रतिशत तक रह गई है और जो हैं भी वो इतने बुरे हालात में हैं कि उनके पास कोई अन्य चारा नहीं है क्योंकि पाकिस्तान सरकार उन्हें भारत आने के लिए वीजा नहीं देती। और यही पाकिस्तान भारतीय मुसलमान जो पाकिस्तान में रहने वाले मुसलमानों से भी अच्छी स्थिति में हैं औऱ उन्हें यहां हर तरह की आजादी है, के बारे में मुस्लिम देशों में कई तरह के दुष्प्रचार में लगा रहता है औऱ खई बार सफल भी हो जाता है। यहां तक कि भारत में रहने वाले मुसलमान भी पाकिस्तानी झंडे फहराते हुए देखे जा सकते हैं। इन्हें मालूम है कि वोटों के सौदागर इनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। ऐसे में, मैं देशवासियों से पूछना चाहता हूं कि क्या यही धर्मनिरपेक्षता की सच्ची परिभाषा है? और भारत सरकार है कि इस मामले पर चुप्पी साधे हुए है और अपना मुंह खोलने को तैयार नहीं है।

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