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क्या हम सचमुच में आजादी मनाने के हकदार हैं?

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हरेश कुमार
हमारा देश कल 15 अगस्त, 2012 को आजादी की 65वीं सालगिरह मना रहा है, लेकिन क्या हम सचमुच आजाद हैं? क्या हम कह सकते हैं कि जिस अंतिम आदमी को जीवन की मूलभूत सुविधा मुहैय्या कराने के लिए, आजादी के दीवानों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी, वे सपने साकार हो गए हैं?

इसमें कोई शक नहीं कि हमारे देश ने हर क्षेत्र में प्रगति की है। शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर तमाम क्षेत्रों में देश ने प्रग्ति की है और देश को इसका लाभ भी मिला है, लेकिन अगर हम समग्रता से देखें तो पायेंगे कि किस तरह से गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर। जबकि गांधी जी के सपनों का भारत ग्राम स्वराज पर आधारित था, जिसमें प्रजातंत्र के माध्यम से अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को भी व्यवस्था का लाभ पहुंचाने का लाभ एकमात्र मकसद था।

लेकिन 1991 के आर्थिक उदारीकरण के लागू होने के बाद से तो स्थिति और भी बिगड़ी ही है। देश में मात्र तीन प्रतिशत लोगों के हाथ में देश का भविष्य गिरबी हो गया है। देश के वित्त मंत्री को विदेशी निवेशकों का हित दिखता है। यहां तक कि खुदरा व्यापार को भी वे अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों के दबाव के आगे झुकते हुए खोलने के उपाय ठूंठ रहे हैं। शेयरबाजार में निवेश करने वाले मात्र तीन प्रतिशत लोग ही देश की सारी योजनाओं पर अपना नियंत्रण कर रहे हैं और अपने अनुसार इसे मोड़ रहे हैं, जो देश के लिए आने वाले समय में काफी खतरनाक होगा। ऐसे लोग अपने हितों की ही बात करते हैं, ऐसे लोगों से आम-आदमी के हितों की बात करना और उम्मीद रखना सरासर बेवकूफी है।

आज भी देश का आम-आदमी जीवन की जरूरी मूलभूत सुविधाओं को पाने के लिए उतना ही बेचैन है जितना वह पहले था, या यूं कहिए कि पहले से ज्यादा बेचैन हो गया है। रोज-रोज की बढ़ती कमरतोड़ महंगाई ने आम-आदमी का जीना हराम कर दिया है। ना तो उसे उचित शिक्षा की सुविधा उपलब्ध है और ना ही सड़क, बिजली, पानी, चिकित्सा या किसी भी तरह की अन्य सरकारी सहायता।

हम पहले भी कह चुके हैं कि कि कई क्षेत्रों में हमने अभूतपूर्व प्रगति की है, लेकिन इसी समय देश के राजनेताओं द्वारा जारी भ्रष्टाचार ने हर सरकारी योजना को उसके अंजाम तक पहुंचने से पहले ही अपने कमीशन से योजना के आकार और समय को बदल दिया तथा कई बार तो योजना इस कदर बिगड़ी कि उसे अंतत: रद्द करनी पड़ी। देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या कहेंगे कि एक तरफ इस देश में एक तबका ऐसा है जिसके पास सारी सुविधायें मुहैया है और जिसके लिए सारी योजनायें बनाई और पल भर में बदल दी जाती है। आप एक उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं कि किस तरह से प्रभावशाली बिल्डर लॉबी, या कोई और लॉबी अपने प्रभावों का इस्तेमाल करके सरकारी योजनांओं को समय-समय पर प्रभावित करता रहा है।

कई योजनायें आजादी के समय से ही अधर में लटकी हुई हैं तो कई योजानाओं पर इसलिए कार्य नहीं हुआ कि संबंधित योजनाओं से किसी जाति विशेष या प्रांत विशेष का भला हो सकता था और वो समुदाय या प्रांत सत्ताधारी दल का समर्थक नहीं था। राज्य और केंद्र में सत्ता बदलते ही सरकार की प्राथमिकता रातों-रात बदल जाती है। और देश का करोड़ों रुपया यूं ही बर्बाद चला जाता है, पहले से चालू योजनायें अधूरी रह जाती है और फिर से अपने उद्धारक की बाट जोहती रहती है।

आज भी देश के एक बड़े हिस्से की आबादी को भर पेट खाना नहीं मिल पाता है। जीवन की अन्य जरूरी बातें तो उसके लिए बेमानी है। संबंधित क्षेत्र के नेताजी अपने मतदाताओं से वोट के समय ही मिल पाते हैं बाकि समय तो सरकारी योजनाओं में कमीशन खोरी से ही उन्हें समय नहीं मिल पाता है। और जैसे ही चुनाव संपन्न हो जाता है, नेता जी फिर से अपने गुर्गों की सहायता से अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय हो जाते हैं।

देश की आजादी के 65 साल बाद भी हम जाति, प्रांत के नाम पर वोट देते हैं क्या यह हमारे लिए शर्म की बात नहीं हैं? हम क्यों उन्हीं भ्रष्टाचारियों को फिर से अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं, जो क्षेत्र के विकास के बजाए अपने पारिवारिक विकास में ही सारा समय गुजार देते हैं।

क्या हम अपने क्षेत्र के समाजसेवी लोगों को आगे नहीं कर सकते हैं और खुद से चंदा एकत्र करके ऐसे जनप्रतिनिधियों के चुनाव का खर्च वहन नहीं कर सकते हैं। अगर ऐसा हो जाए तो आधी से ज्यादा समस्या तुरंत खत्म हो जाएगी। क्योंकि, ऐसा देखने में आता है कि आपराधिक छवि के लोग चुनावों में खड़े हो जाते हैं और पैसे एवं बाहुबल के दम पर चुनाव जीत जाते हैं, जब इस तरह के प्रत्याशी चुनाव जीतेंगे तो आप उनसे क्या उम्मीद कर सकते हैं?

ऐसे लोग तो चुनावों में अपना पैसा निवेश करते हैं और भाग्य ने गर साथ दे दिया, तथा वे जीत गए तो उनकी तो पांचों उंगलियां घी में और सर कड़ाही में होता है। चुनाव में लगाया पैसा तुरंत वापस आ जाता है, वो भी सूद समेत। सूद भी ऐसा-वैसा नहीं। देखते-देखते ऐसे लोग करोड़ों में खेलने लगते हैं और गरीबों का आर्थिक, मानसिक और शारीरिक शोषण करना तो इनके लिए एक तरह से खेल बनकर रह जाता है।

आज हम देख सकते हैं कि आपराधिक छवि के लोग हर दल में हैं और किसी भी दल को आपराधिक छवि के लोगों से परहेज नहीं है, बशर्ते कि उसके पास जीतने की क्षमता हो। हाल में हरियाणा के गृहराज्य मंत्री रहे गोपाल कांडा के बारे में क्या कांग्रेस के मुख्यमंत्री – भूपेंद्र सिंह हुड्डा को मालूम नहीं रहा होगा, क्या ऐसा हो सकता है? लेकिन अपनी सरकार का बहुमत साबित करने के लिए हुड्डा ने सिरसा से निर्दलीय विधायक, आपराधिक छवि के गोपाल कांडा को गृह राज्यमंत्री जैसा जिम्मेदार विभाग दे डाला। जिस व्यक्ति को पुलिस की हिरासत में होना चाहिए था, पुलिस उसकी सुरक्षा में लग गई। कोई भी सोच सकता है कि इस तरह के कदम से पुलिस का आत्मबल बढ़ेगा या घटेगा?

देश में ऐसे एक नहीं, अनेकों उदाहरण मिल जायेंगे। अभी, हाल ही में उत्तर प्रदेश में जेल मंत्री बने राजा भैया उर्फ रघुराज प्रताप सिंह की छवि भी इसी तरह की है और इन पर कई आपराधिक मामले राज्य के विभिन्न न्यायालयों में लंबित है, लेकिन प्रजातंत्र का कमाल देखिए कि जिस व्यक्ति को जेल के अंदर होना चाहिए वह जेल मंत्री औऱ पुलिस का आला अधिकारी उसकी सुरक्षा में लगा हुआ है। ईमानदार पुलिस कर्मचारियों पर क्या बीतती होगी, यह तो वही बेहतर ढ़ंग से बता सकता है।

गरीब व्यक्ति के लिए योजनायें तो बहुतों बनी और खर्च भी काफी हुए लेकिन इसका लाभ गरीब व्यक्ति को ना होकर क्षेत्र के नेताजी औऱ उनके करीबी ठेकेदारों को हुआ। चाहे राशन को लें या किराशन की दुकान।

सभी जगह जमकर घपलेबाजी होती है और 21वीं शताब्दी में जहां हम सूचना क्रांति का उपयोग करके इस भ्रष्टाचार पर आसानी से काबू पा सकते हैं, वहीं इसमें अड़ंगे लगाने वालों की कोई कमी नहीं है, जिससे आमदनी पर आंच ना आ पाये। आज भी अधिकांशत: सरकारी फाइल अपनी रफ्तार से ही चलती है जब तक कि संबंधित विभाग के अधिकारी को आप चढ़ावा ना दे दें तो उस पर कोई निर्णय नहीं होगा और आप अपने भाग्य को कोसते रह जायेंगे।

देश की राजधानी दिल्ली में ऐसे कितने लोग हैं जिनके पास करोड़ों के बंगले हैं और एक-एक नहीं कई-कई, लेकिन सारे बेनामी या फर्जी नामों से और ऐसे लोगों के नाम भी आपको बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे/Below the poverty Line) कार्ड मिल जायेंगे लेकिन जो इस योजना का असली में हकदार है वह इस योजना से वंचित रह जाता है क्योंकि उसके पास इतने पैसे नहीं कि वह संबंधित विभाग के अधिकारियों को खुश कर सके। विभाग का अधिकारी उसे इतना परेशान कर देता है, वह आदमी इसके संबंध में सोचना ही छोड़ देता है।

उदाहरण के तौर पर, अगर एक व्यक्ति जिसकी आदमनी पर घर का खर्च चलता है और वह अपने एक दिन के काम को छोड़कर किसी सरकारी बाबू के चक्कर लगाता है और उसका काम बगैर चढ़ावा दिए नहीं होता है, तो वह अपना दूसरा दिन खराब नहीं करना चाहेगा। क्योंकि उसके परिवार के सामने भूखे सोने की नौबत आ जाएगी। ऐसे में अगर परिवार में कोई बीमार हो जाए तो फिर तो भगवान ही उसका मालिक है, क्योंकि सरकारी अस्पतालों की सुविधाओं के बारे में सबको पता है। गरीब आदमी को सरकारी अस्पतालों में उपस्थित चिकित्सक ऐसे डांटता-डपटता है जैसे कोई भीख मांगने वाला या गली का कुत्ता आ गया हो, यह इस देश की कड़वी हकीकत है।

हालांकि, एक-आध अपवाद हर जगह होता है और अच्छे-भले लोग हर जगह मिल जायेंगे, लेकिन भारतीय राजनीति में ठूंठे से भी आपको ऐसे लोग नहीं मिल पायेंगे जो जनता के सच्चे सेवक हों। अगर वे खुद अपराधी नहीं हुए तो कोई बात नहीं, अपराधियों का संरक्षण जरूर करते हैं, जिससे चुनावों के दौरान उससे काम लिया जा सके। किसी क्षेत्र के अपराधी के पकड़े जाने के तुरंत बाद ही क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों का फोन थाने में आना शुरू हो जाता है, कि आप फलांने व्यक्ति को छोड़ दें, वो हमारा आदमी है और इतना ही नहीं, भला आदमी भी है और उसे विपक्षी पार्टी के लोगों ने एक साजिश के तहत फंसाया है। यह तो एक झलक है।

तो फैसला हम आप पर ही छोड़ते हैं कि क्या हम सचमुच आजादी मनाने के हकदार हैं, कुछ लोगों को सारी सुविधायें उपलब्ध करा देने मात्र से देश के आम-आदमी का भला नहीं होने वाला?

अंत में सभी देशवासियों को आजादी की 65वीं सालगिरह की हार्दिक शुभकामना व बधाई।

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