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आडवाणी से अन्ना तक

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

आडवाणी ने अपने ब्लॉग में 2014 के आम-चुनाव के बाद गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा दलों से किसी नेता के प्रधानमंत्री बनने की बात क्या लिख दी कि देश भर में सभी दलों ने अपनी प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। कांग्रेस ने भाजपा द्वारा चुनाव से पहले ही हार मानने की बात कही तो वहीं भाजपा ने इस पर चुप्पी साध ली। हालांकि, पार्टी के कई नेता आडवाणी के विचारों से सहमत नहीं हैं और वे इसे मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने की बात कह रहे हैं तो दूसरी ओर एनडीए के संयोजक, शरद यादव ने इसका प्रतिकार किया और कहा कि वे ऐसा नहीं मानते हैं। बाल ठाकरे ने तो उसे भाजपा और नीतीश कुमार के बीच झगड़े के तौर पर लिया और उसे आंतरिक कलह कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया।

अंदर ही अंदर कांग्रेस अपने युवराज, राहुल गांधी को अगले प्रधानमंत्री के तौर पर पेश कर सकती है और आ रही ख़बरों के अनुसार, कांग्रेस ने प्रत्येक बीपीएल परिवार यानि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को मोबाइल के साथ 200 मिनट टॉक टाइम मुफ्त में देने का फैसला किया है। इसके अलावा, बुंदेलखंड में पार्टी की स्थिति को मजबूत करने के लिए बुंदेलखंड की भाषा को आठवीं अनसूचि में शामिल करने की बात कही है। नरेगा में फैले भ्रष्टाचार और सांसदों के द्वारा अनुसंशित योजनाओं में घपलों को रोकने का कोई कदम उठाने के बजाए सांसदों की राशि को 2 से बढ़ाकर 5 करोड़ कर दिया जिससे कि वे अपने समर्थकों को ठेके दिला सकें और बदले में कमीशन पा सकें।

लालकृष्ण आडवाणी जी की दिक्कत है कि वे चाहकर भी प्रधानमंत्री ना बन सके और रह-रह कर इसका उन्हें मलाल होता है। इसके लिए उन्होंने जिन्ना की मजार पर जाकर उसे देशभक्त भी बता दिया, लेकिन इसका परिणाम उल्टा हो गया। मोदी से उनकी बनती है नहीं, मामला यहां भी वही है। लेकिन सीधे विरोध नहीं कर सकते क्योंकि अहमदाबाद से अगर चुनाव लड़ना है तो मोदी का विरोध महंगा पड़ेगा और नीतीश कुमार को यह गलतफहमी कभी नहीं पालनी चाहिए कि वे प्रधानमंत्री के पद के उपयुक्त व सभी दलों के पसंदीदा उम्मीदवार हो सकते हैं। हां, किस्मत साथ दे दे तो और बात है?

गुजरात के मुख्यमंभी, नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का समर्थन प्राप्त है और उनका विरोध बीजेपी में किसी को भी भारी पड़ सकता है। अगर गुजरात में गोधरा दंगे को छोड़ दें तो गुजरात जैसा विकास किसी भी राज्य ने इतनी तेजी से नहीं की है। विरोधी दलों के नेताओं ने भी समय-समय पर मोदी की तारीफ की है।

हालांकि, यह भी हो सकता है कि 2014 के आम-चुनाव के बाद कोई छुपा रूस्तम देश का नेतृत्व देने को आ गे आ जाये। क्योंकि राजनीति में हमेशा संभावनायें बनी रहती है।

इस देश में कुछ भी असंभव नहीं है और राजनीति में तो कहा जाता है कि यहां सब कुछ संभव और जायज है, बशर्ते कि वो राजनेताओं की जरूरतों को पूरा करता हो?

इस देश में, देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल जैसे लोग भी प्रधामंत्री बन जाते हैं और राजनाति से रिटायर होकर दिल्ली से अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर अपने गृहप्रदेश – आंध्रप्रदेश जाने वाले पीवी नरसिम्हा राव ने तो उम्र के अंतिम पड़ाव में सबको चौंकाते हुए 5 साल की सफल पारी खेल डाली थी। जबकि हकीकत यह है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उम्र का तकाजा देते हुए उन्हें लोकसभा का टिकट नहीं दिया था और भाग्य की बिडंबना देखिए कि तमिल आतंकवादियों के द्वारा तमिलनाडु के श्रीपेरंबदुर में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए जब राजीव गांधी की हत्या कर दी गई तो कांग्रेस के उस समय के कर्णधारों ने नरसिम्हा राव को ही प्रधानमंत्री का उपयुक्त व्यक्ति पाया, ये और बात है कि उस समय सभी कांग्रेसी नेता यह मानकर चल रहे थे कि नरसिम्हा राव ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रहेंगे या कुछ दिनों के बाद उन्हें सत्ता से बेदखल कर देंगे, ऐसा मानने वालों में शरद पवार, नारायणदत्त तिवारी, अर्जुन सिंह से लेकर कई नेता थे। राव, प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ भी काम कर चुके थे और उन्हें 8 से ज्यादा भाषाओं का ज्ञान था। अगर, राव ने लोकसभा में अपना बहुमत साबित करने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा से सहयोग नहीं लिया होता और बदले में सांसदों को घूस नहीं दी गई होती तो वे भारत के सबसे सफल प्रधानमंत्रियों की कतार में आगे खड़े होते।

मौजूदा प्रधानमंत्री, मनमोहन सिंह को उन्होंने ही वित्त मंत्री बनाया था। उन्होंने देश को नई आर्थिक क्रांति नीति दी और प्रत्येक 5 में से 1 भारतीय को गरीबी रेखा से उपर उठा दिया।

वर्तमान में भी, देश में एक से बढ़कर विद्वान और धाकड़ नेता मौजूद है लेकिन कांग्रेस नेतृत्व मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री इसलिए बनाए हुए है कि कहीं आगे चलकर कोई राहुल गांधी की राह में बाधा ना खड़ी कर दे। मनमोहन सिंह गैर-राजनीतिक व्यक्ति हैं और राजनीति से उनके परिवार का दूर-दूर तक कोई ताल्लुकात नहीं है। इसे भाग्य नहीं तो और क्या कहेंगे?

जिस सुशील कुमार शिंदे के बिजली मंत्री रहते लगातार दो दिन देश का अधिकांशत: हिस्सा ग्रिड के फेल होने के कारण बिजली से महरुम रहा, लंबी दूरी तक, बिजली से चलने वाली ट्रेनें जहां थीं, वहीं रूक गई, यहां तक कि मेट्रो तक रूक गया। देश की सीमाओं पर तैनात राडारों ने काम करना बंद कर दिया। अस्पतालों में काम प्रभावित हुए। झारखंड व अन्य जगहों पर कोयला खदानों में मजदूर फंसे रह गए। यानि जो जहां था वहीं रूक गया। ऐसे मंत्री को दंडित करने के बजाए उसे और अधिक जिम्मेदारी वाला विभाग, गृह मंत्रालय सौंप दिया गया। इतना ही नहीं, कांग्रेस नेतृत्व ने राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के शरद पवार को चिढ़ाने के लिए, शिंदे को लोकसभा में कांग्रेस पार्टी का नेता भी बना दिया। शरद पवार ही थे जिन्होंने सुशील कुमार शिंदे को राजनीति में प्रवेश दिलाया था। और ऐसा दलित वोटों को पाने कि लिए किया गया।

देश में जाति एक सच्चाई है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है लेकिन जहां जरूरत है, वहां जाति करिए ना कम से कम जिसे दंडित करना हो उसका महिमामंडन तो मत करिए। आपको दलित-पिछड़ों को आगे बढ़ाना है तो नया नेतृत्व पैदा करिए। उन्हें शिक्षा दीजिए और इस लायक बनाइये कि वे देश के नेतृत्व के लिए खुद को सही साबित कर सकें।

सो, इस देश में कुछ भी संभव है। तमाम तरह के घोटालों और आरोपों का सामना कर रहे, पी.चिदंबरम को फिर से वित्त मंत्रालय की जिममेदारी सौंपी गई है जिससे कि वे एक बार फिर से देश में विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को काम करने का मौका दे सकें और पर्दे के पीछे से इसके लिए जबरदस्त तैयारियां चल रही है। अमेरिकी प्रेसिडेंट से लेकर अन्य यूरोपीय देश के नेता खुदरा क्षेत्र को विदेशी कंपनियों के लिए खोलने के लिए भारत सरकार पर दबाव बना रहे हैं और अपने देश में ये ही लोग भारतीय प्रतिभाओं को ऐसा मौका देने से रोकते हैं। बीपीओ कंपनियों को चेतावनी दी जाती रही है, कि वे देशहित को प्राथमिकता दें।

चलिए, हम भी देखते हैं कि आने वाले समय में क्या-क्या परिवर्तन हो रहा है। क्योंकि अभी कई परिवर्तन देखने को मिलेंगे इस बीच में। अन्ना के सहयोगियों के द्वारा पार्टी बनाने की घोषणा मात्र से ही भारतीय जनता पार्टी और उनके समर्थक दल बौखला गए हैं, उन्हें लगता है कि अन्ना उनके समर्थकों का वोट ही काटेंगे और अंतत: कांग्रेस को इसका लाभ होगा।

अन्ना व उनकी टीम पिछले 16 महीनों से देश के प्रत्येक दलों के रवैये को नजदीकी से देख रही थी। किसी भी दल की मंशा जनलोकपाल बिल को संसद में पास कराने की नहीं थी। देश का हर नेता (एक-आध अपवाद को छोड़कर) भ्रष्टाचार के इस दलदल में आकंठ डूबा हुआ है और अपने गले में फांस कौन डालना चाहेगा। हम कह सकते हैं कि मौजूदा दलों से निराश होने के बाद ही अन्ना और उनके सहयोगियों ने दल गठन करने और अगला चुनाव लड़ने का फैसला किया है।

इस देश की अधिकांश आबादी भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त है और इससे छुटकारा पाना चाहती है। देश को जरूरत है ऐसे नेताओं की जो प्रांतवाद, जातिवाद की सीमाओं को तोड़कर देश के विकास में योगदान देने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार होंवे। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि आजादी के 65 साल के बाद भी, देश की अधिकांश आबादी को जीवन के लिए जरूरी मूलभूत सुविधायें मयस्सर नहीं पाईं हैं। ऐसे में, आम-आदमी का नेताओं से नाराज होना स्वाभाविक है और वह ऐसे हर नेता व दल का समर्थन करने को तैयार है जो इन बुराइयों से निपटने के लिए हामी भरेगा।

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