- 168 Posts
- 108 Comments
हरेश कुमार
पिछले कुछ दिनों की घटनाओं से मन एकदम से विचलित हो गया है लगता ही नहीं कि देश की राजनीतिक पार्टियां देशहित में कुछ करना चाहती है, उसे तो येन-केन-प्रकारेण अपनी सत्ता को अक्षुण्ण बनाए रखने में ही सदा दिलचस्पी रहती है।
दो दिनों में, इस देश ने अभूतपूर्व बिजली संकट झेला और कहते हैं कि विश्व का यह सबसे बड़ा बिजली संकट था और इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम सहित 19 राज्यों में बिजली रानी ने कहर बरपा दिया।
लंबी दूरी तक, बिजली से चलने वाली सारी ट्रेनें जहां थीं वहीं रूक गई, कई को तो रद्द करना पड़ा। मेट्रो में तो स्थिति यह हो गई कि बाहर मेन गेट पर ताला लगाना पड़ा। यात्रियों को कई किलोमीटर पैदल चलकर बाहर आपातकालीन दरवाजे से निकाला गया। लोग-बाग पानी के लिए तरस गए। देश की सीमा पर लगे राडारों ने भी काम करना बंद कर दिया। इससे हमारे देश की सुरक्षा-व्यवस्था पर एक प्रश्नचिन्ह सा लग गया है।
औद्योगिक उत्पादन ठप्प हो गया। झारखंड में कोयला खदानों में मजदूर फंस गए। देश की 60 करोड़ से ज्यादा की आबादी इससे प्रभावित हुई। कहते हैं कि इसके लिए विभिन्न राज्य सरकार जिम्मेदार हैं जो अपने लिए आबंटित बिजली से ज्यादा ले रहे थे और इसमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है।
पिछले 30 जुलाई को जहां रात को 2.30 के लगभग उत्तरी ग्रिड फेल हो गई और इसके कारण 9 राज्यों को अंधेरे में रहना पड़ा, अभी इसके 24 घंटे भी नहीं बीते थे कि एक बार फिर से 31 जुलाई को उत्तरी, पूर्वी और उत्तरी-पूर्वी ग्रिड एक साथ तीन ग्रिड फेल हो गया।
और इस बार, तो पूरा केंद्रीय तंत्र बदहवास मुद्रा में आ गया। किसी को सूझ नहीं रहा था कि ऐसे में करें तो क्या करें? राज्यों की सरकार ने तो तो इसका ठीकरा केंद्र पर फोड़ा और केंद्र की सरकार ने भी राज्य सरकारों पर आवंटन से ज्यादा बिजली उठाने का ठीकरा फोड़ने में ही अपनी भलाई समझी। देश-विदेश की मीडिया में इस अभूतपूर्व बिजली कटौती पर चर्चा हुई।
फिर भी, किस्मत देखिए केंद्रीय बिजली मंत्री- सुशील कुमार शिंदे को इसके लिए नैतिकता के आधार पर जिम्मेदारी लेकर अपने पद से त्यागपत्र देना चाहिए था, या केंद्रीय नेतृत्व को उसे हटा देना चाहिए था, उसे पद्दोन्न्ति देकर बिजली मंत्रालय से भी गंभीर गृह मंत्री बना दिया गया। इसे क्या समझा जाए? यही नहीं कांग्रेस नेतृत्व शिंदे को लोकसभा में पार्टी का नेता भी बनाने वाली है।
और ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि पिछले 8 सालों से प्रधानमंत्री के पद पर काबिज, मनमोहन सिंह राज्यसभा से हैं जिसके कारण प्रणव दा अभी तक लोकसभा में कांग्रेस पार्टी के नेता का पद संभाल रहे थे और पिछले कई सालों से पार्टी के संकटमोचक का कार्य भी वे बखूबी निभा रहे थे। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व को एक शंका जो अभी से सताने लगी है वह है कहीं प्रणव दा, पूर्व राष्ट्रपति, ज्ञानी जैल सिंह की तरह तो नहीं व्यवहार करने लगेंगे।
उल्लेखनीय है कि एक समय ऐसा भी आया था जब राजीव गांधी और ज्ञानी जैल सिंह के बीच संबंधों में खटास पैदा हो गई थी और राजीव गांधी ने राष्ट्रपति से मिलना तक छोड़ दिया था। उस समय के राजनीतिज्ञों के अनुसार, तो ज्ञानी जैल सिंह ने राजीव गांधी के विरोधियों से यहां तक कह दिया था कि आप 50 कांग्रेसी सांसदों के हस्ताक्षर करवा कर ले आओ मैं सरकार को बर्खास्त कर दूंगा और इस संबंध में उन्होंने कानूनी विशेषज्ञों से राय भी ली थी। खैर इतिहास अपनी जगह है।
क्या मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व इतना आशंकित हो गई है कि जब तक राहुल गांधी इस देश की गद्दी पर बैठ नहीं जाते और ठीक तरह से उनका राज्याभिषेक (कहने को भारत में प्रजातंत्र है, लेकिन इसकी हालत किसी राजतंत्र से कम नहीं है, समाजवादी पार्टी सहित कई क्षेत्रीय दल तो पारिवारिक पार्टी बनकर रह गई है और विरोध में आवाज उठाने वालों से तो देशद्रोहियों की तरह व्यवहार किया जाता है) नहीं हो जाता तब तक ऐसे लोगों (जिनकी कोई राष्ट्रीय अपील/पहचान ना हो) को ही महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया जाएगा जिससे कि आगे चलकर कोई रास्ते का कांटा नहीं बन सके।
जिस प्रणव मुखर्जी से कांग्रेस अध्यक्षा, सोनिया गांधी को सबसे ज्यादा डर लग रहा था उन्होंने स्थिति की नजाकत को समझते हुए राष्ट्रपति बनने में ही अपनी भलाई समझी, नहीं तो उन्हें अपने पुत्र से भी कम उम्र के राहुल गांधी के नीचे काम करना पड़ता।
शरद पवार द्वारा हाल में कांग्रेस के खिलाफ बगाबत का झंडा बुलंद करने के पीछे वैसे तो महाराष्ट्र में कांग्रेस के द्वारा सिंचाई मंत्रालय में हुए घोटालों की जांच को रोकवाना था क्योंकि यह मंत्रालय उन्हीं की पार्टी के पास है और इसमें सिंचाई के नाम पर जमकर घोटाले हुए हैं।
पिछले एक दशक में, सिचाई परियोजनाओं पर 42,500 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं और लंबित परियोजनाओं को पूरा करने के लिए 75,000 करोड़ रुपये चाहिए जबकि अभी तक मात्र 5 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र बना और बाकि सबने मिलकर आपस में कागजों पर ही सिंचाई की खानापूर्ति करके इसे हजम कर लिया है, के अलावा अपनी पुत्री से भी उम्र में छोटे राहुल गांधी के अधीन काम करने की शंका अभी से सता रही है। वैसे उनकी मांगों में से एक मंत्रिमंडल में दूसरा स्थान भी था, जो प्रेसिडेंट बनने से पहले प्रणव दा के पास था। लेकिन 9 सांसदों वाली राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (राकंपा) की अपनी सीमायें हैं और वो ज्यादा उछल-कूद मचा नहीं सकती, क्योंकि इसके कई सांसदों और विधायकों के खिलाफ सीबीआई के पास केस पड़े हुए हैं, सो मिलकर ही रहने में भलाई है। सत्ता की मलाई खाने के लिए राकंपा, कांग्रेस के साथ सौदेबाजी तो करती है लेकिन अपनी सीमाओं का उसे पता है।
राष्ट्रपति के ही चुनाव में, किस तरह से केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार ने समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी एवं उत्तर-पूर्वी राज्य के नेताओं के खिलाफ आय से अधिक मामले में सीबीआई का डर दिखाकर एवं योजना आयोग से भरपूर मदद दिलाकर अपने पक्ष में किया, जिसके भी विरोध की आवाज उठनी थी, उसके खिलाफ केंद्रीय सत्ता का जमकर दुरुपयोग किया गया। ऐसा पूर्व की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी किया था, क्योंकि उनकी भी गठबंधन की सरकार थी और गठबंधन की सरकार की अपनी मजबूरियां होती है।
अब आते हैं, पिछले दो दिनों के बिजली संकट पर:
देश में कुल पांच पावर ग्रिड है- उत्तरी, पूर्वी, उत्तरी-पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी। दक्षिणी को छोड़कर बाकि सारे ग्रिड एक-दूसरे से जुड़े हैं।
गौरतलब है कि उत्तरी, पूर्वी और उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र कुल मिलाकर 50 हजार मेगावाट बिजली सप्लाई करती है।
और प्रभावित ग्रिड में आने वाले क्षेत्र –
उत्तरी ग्रिड: पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और चंडीगढ़
पूर्वी ग्रिड: पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा और सिक्किम
उत्तरी-पूर्वी ग्रिड: अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा।
और अंत में:
गृह मंत्री, पी.चिदंबरम को तीसरी बार वित्त मंत्रालय का पद मिला है और ऐसा प्रणव दा के राष्ट्रपति बन जाने और देश की सुस्त आर्थिक रफ्तार और नीतिगत शून्यता के आरोपों के बीच, कड़े आर्थिक सुधारों के हिमायती चिदंबरम को वित्त मंत्री का पद देने के लिए प्रधामंत्री मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी को मना लेने के कारण संभव हुआ है, जबकि कांग्रेस में ही कई सांसद चिदंबरम की कार्यप्रणाली से खुश नहीं थे और कई तो इसके लिए अपनी नजरें गड़ाये थे।
उल्लेखनीय है कि पी.चिदंबरम पहली बार, देवगौड़ा की सरकार में वित्त मंत्री बने थे। फिर 2004 में संयुक्त प्रग्रतिशील गठबंधन की सरकार के सत्ता में आने के बाद एक बार फिर से वित्त मंत्री का प्रभार मिला। मुंबई में पाकिस्तान प्रायोजित होटल ताज सहित कई जगहों पर हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल को गृह मंत्रालय से देश भर में विरोध की आवाज उठने के बाद, केंद्र की कांग्रेस सरकार द्वारा मजबूरीवश हटाने के कारण चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया था। और, बिडंबना देखिए कि एक बार फिर से वे वित्त मंत्रालय में आ गए हैं। अब देखना है कि वे देश की आर्थिक व्यवस्था को किस तरह से पटरी पर ला पाते हैं।
उनके खिलाफ 2जी स्पेक्ट्रम, एयरसेल, मैक्सिम समेत कई मामले हैं यहां तक कि उनके निर्वाचन के खिलाफ भी मुकदमा चल रहा है।
इसके अलावा, वीरप्पा मोइली को कानून मंत्रालय से हटाकर कम महत्व के मंत्रालय, कॉरपोरेट मंत्री का पद दिया गया था अब उसकी भरपाई शायद, उर्जा मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार सौंप कर किया जा रहा है।
अभी दो दिनों में इस देश ने इतना बड़ा बिजली संकट झेला और बिजली मंत्रालय पर ध्यान देने के बजाए इसका अतिरिक्त प्रभार सौंपा जा रहा है। इस देश का क्या होगा? यही सोचकर दिल बैठा जा रहा है। जहां हर चीज से पहले राजनीतिज्ञ यह सोचते हैं कि इससे उनका कितना नफा-नुकसान होगा। तभी वे कोई कदम उठाते हैं। कितना भी बड़ा देशहित का कोई कार्यक्रम क्यों ना हो, अगर विपक्षी पार्टी को इसका लाभ मिलने वाला होता है तो इसे तब तक लटकाये रखा जाता है जब तक कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा डांट-फटकार नहीं पड़ती। इस देश के नेताओं की सोच पर किसी को भी तरस आ सकती है।
जरूरत है ऐसे कदम उठाने की जिससे भविष्य में इस तरह की घटनायें ना हों। एक तरफ तो देश महाशक्ति बनने के दावे कर रहा है और दूसरी तरफ ना तो अपने देशवासियों को मूलभूत सुविधायें उपलब्ध कराने में सक्षम है और ना ही कुशल प्रशासन देने में। हां, इन राजनीतिज्ञों से चुनावी वादे जितने करवा लो। सारे बरसाती मेढ़क साबित होते हैं।
क्या इसी तरह, हमारा देश प्रगति करेगा और आने वाली सदी भारत की होगी?
Read Comments