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कांग्रेस क्या किसी भी पार्टी को विरोध पसंद नहीं?

http://information2media.blogspot.in/2012/04/blog-
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हरेश कुमार

कहा जाता है कि उसी देश में लोकतंत्र सफल होता है जहां विरोधियों की भी आवाज भी सुनी जाती है लेकिन इस देश में आजकल कुछ उल्टा ही देखने को मिल रहा है। विरोधियों की आवाज को दबाने का हर स्तर पर प्रयास हो रहा है। यहां तक कि जान से मारने की कोशिश भी की जाती है या जान से मार भी दिया जाता है।

जबकि कवि कबीर का पुराना दोहा है “निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाए। बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए।” इसका सीधा अर्थ है कि आलोचना करने वालों को सदैवा अपने पास रखें जिससे आपको अपनी कमियों के बारे में पता चल सके ना कि उससे दूरी बना कर रखें जिससे आपमें एक तरह का अहंकार भर जाए, जो आपके नाश के लिए सृजन का काम करे।

रावण बहुत बड़ा ज्ञानी था लेकिन उसकी एक कमी थी कि वो अपने खिलाफ एक भी शब्द नहीं सुनता था, जो उसके विनाश का कारण बना।

समाजसेवा के क्षेत्र में काम करने वाले कई आरटीआई (राइट टू इंफोर्मेशन) के कार्यकर्ताओं पर हुए जानलेवा हमले व हत्या इस बात को पुख्ता करते हैं।

विरोधियों की आवाज को दबाने का प्रयास हर पार्टी की तरफ से किया जा रहा है, कोई भी पार्टी इससे अछूती नहीं है। सबमें केंद्रीय नेतृत्व अहं के शिकार हैं। गुजरात में नरेंद्र मोदी व अन्य नेताओं के बीच अहं का टकराव। अन्य राज्यों में भी ऐसा ही है।

सभी पार्टियों के नेताओं को लगता है कि फलानां नेता के रहते शायद वो आगे नहीं बढ़ पाएगा, सो उसे रास्ते से हटाने के लिए हरसंभव प्रयास किया जाता है चाहे इस प्रयास में उसकी हत्या ही क्यों ना करनी पड़े। तो राजनीति का स्तर इस कदर गिर चुका है।

राष्ट्रपति के पद पर प्रणव दा के नाम को मंजूरी ना देना ममता बनर्जी की असुरक्षा को ही दर्शाता है, वो पश्चिम बंगाल की राजनीति में अपने से किसी को उपर उठने नहीं देना चाहती हैं। ममता ने वही गलती दुहराई है जो गलती कम्युनिस्टों ने ज्योति बसु को 1996 में प्रधानमंत्री ना बनने देकर किया था काश हमारे देश के राजनेताओं में सुरक्षा का बाव आए और वे एक-दूसरे का सम्मान करना सीखें।

ममता बनर्जी, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौत के बाद, उपजे सहानुभूति लहर में, जाधवपुर विश्वविद्यालय के छात्र नेता रहते हुए वहीं से युवा कांग्रेसी प्रत्याशी के तौर पर लोकसभा का चुनाव लड़ी थी और पहली ही बार में धाकड़ वामपंथी नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर लोकसभा में पहुंची थी। लेकिन उन्हें लगा कि कांग्रेस में रहकर वो आगे नहीं बढ़ पायेंगी सो तुम्हीं से मुहब्ब्त, तुम्हीं से लड़ाई वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए आज पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के पद पर हैं और लोकसभा में अपने पार्टी के दम पर सभी की नाम में दम किए हुए हैं।

लोकसभा और राज्यसभा, या विधानसभा और विधानपरिषद की बात एक मिनट के लिए छोड़ भी दें तो आजकल ग्राम पंचायत के चुनावों में कई-कई लाख (कम से कम 25 से 30 लाख) खर्च हो रहे हैं और कई बार तो विरोधियों की हत्या भी कर दी जाती है। और ये सब ग्राम पंचायत को मिल रहे पैसे के कारण हो रहा है।

आजकल महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना के तहत प्रत्येक गरीब परिवार को साल में 100 दिन का रोजगार देने का कार्यक्रम हर पंचायत में किया जा रहा है और इस कार्यक्रम में इतना ज्यादा भ्रष्टाचार है कि पूछिए नहीं ग्राम के मुखिया व पंचायत सदस्य और सरपंच मिलकर योजना का पैसों का बंदरबांट कर रहे हैं और जो असली प्रार्थी हैं उन्हें या तो योजना की जानकारी नहीं या उनके नाम पर गलत पैसे की निकासी की जा रही है।

हर जिले, पंचायत में ग्राम-पंचायत के कार्यों की समीक्षा के बाद यह बात खुलकर सामने आ रही है।

कुछ कांग्रेस पार्टी के इतने कट्टर समर्थक हैं कि उनकी नीतियों की कमियों के बारे में बताओं तो वे आपको तुरंत जनसंधी बतना शुरू कर देते हैं जैसे कि जनसंघी होना या किसी आतंकी संगठन के सदस्य होने जैसा हो। या फिर कांग्रेस के विरोध में आप बोलेंगे तो आपका हश्र भी वही होगा जो आजकल उसके विरोधियों (जगन रेड्डी सहित कई और राजनीतिक लोग हैं इस लाइन में, सबको मालूम है कि जगन रेड्डी ने अपने पिता के रसूकों का इस्तेमाल करके गलत तरीके से धन जमा किया और कंपनियां खोली, लेकिन ये कांग्रेसी उस समय कहां थे जब उनके पिताजी स्वर्गीय वाई आर एस रेड्डी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, क्या यह सब एक दिन में हो गया है।) का हो रहा है। झूठे मुकदमे में फंसाना।

कांग्रेसी इतिहास की व्याख्या अपने ठंग से ही करते हैं ये वही कांग्रेसी हैं जिनके कारण देश की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में से एक जिसकी स्थापना पंडित जवाहरलाल ने शिक्षा के उच्च मापदंडों को स्थापित करने के लिए किया था लेकिन दुर्भाग्य से वह जवाहरलाल यूनिवर्सिटी कम्युनिस्टों का अड्डा बन गया और ये ऐसे कम्युनिस्ट हैं जो करोड़ों की गाड़ियों में सफर करते हैं, महंगे होटलों में खाना खाते हैं और शायद गरीबी की परिभाषा भी तय करने में इन कांग्रेसियों की मदद करते हैं।

ये बातें तो गरीबों की करते हैं लेकिन असलियत में कभी भी गरीबी को नजदीक से नहीं जाना। तभी तो पश्चिम बंगाल, केरल, त्रिपुरा के अलावा कहीं इनका विस्तार नहीं हो सका। नीयत ही सही नहीं है तो ये गरीबों की भलाई क्या करेंगे? तभी तो जहां, एक ओर पूरे देश में निवेश का माहौल था वहीं दूसरी ओर कम्युनिस्टों के आतंक के कारण पश्चिम बंगाल से निवेशक दूर होते चले गए जबकि एक समय ऐसा था जबकि सारे देश के निवेशक कोलकत्ता को पहला पसंद मानते थे। आखिर ऐसा क्या हो गया।

सोवियत संघ के विघटन के बाद भी कम्युनिस्टों ने अपने काम का तरीका नहीं बदला यहां तक कि चीन द्वारा भारत पर आक्रमण को उसने कभी भी गलत नहीं ठहराया और ना ही भारत के अतिक्रमण किए गए जमीन को वापस करने की मांग की।

मैं वापस कांग्रेसियों की नई पौध पर आता हूं जो अपने विरोधियों को जनसंघी ठहराने में एक मिनट की भी देरी नहीं करते हैं। और अपने आप को प्रगतिशील विचारों का मानते हैं। कांग्रेसियों की नजर में जनसंघ का सदस्य होना या उनके विचारों का समर्थन करना आतंकवादियों को समर्थन देने से ज्यादा खतरनाक है तभी तो कश्मीर समस्या जस की तस बनी हुई है और देश के भोले-भाले जवान अपने प्राणों की आहुति सहर्ष दे देते हैं लेकिन उनको मालूम नहीं कि इस देश के राजनीतिक दोगले ही नहीं आला दर्जे के हरामी हैं।

कई पत्रिकाओं और खुफिया माध्यमों से ये उस समय ये खबर आई थी कि पाकिस्तान ने सियाचीन ग्लेशियर सहित कारगिल पर अपना सैनिक अड्डा बना लिया है और कश्मीर पर एक और आक्रमण करने वाला है लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इन्हें नजरअंदाज करके नवाज शरीफ से मिलने पाकिस्तान चले गए क्योंकि उन्हें कुछ सूत्रों (अमेरिका) के द्वारा आश्वस्त किया गया था कि अगर बातचीत में कोई प्रगति हुई तो उस वर्ष का नोबल शांति पुरस्कार इन दोनों को संयुक्त रुप से दे दिया जाएगा लेकिन तत्कालीन पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशरर्फ ने इनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया और फिर से दोबारा इन्हीं परवेज मुशरर्फ को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने आगरा में बुलाकर पूरे विश्व में उनके शासन को मान्यता दिलाई। ये सब अमेरिकी सरकार के दबाव में किया गया था। इस देश का क्या होगा? जहां राजनीतिज्ञ देश के लिए नहीं बल्कि अपने तात्कालिक लाभ के लिए सोचते हैं।

इस देश के नेता चाहे किसी भी दल से जुड़ें हो सारे एक जैसे ही हैं कमोबेश सब की स्थिति एक जैसी ही है। तेरी कमीज, मेरे कमीज से सफेद कैसे।

इसका उदाहरण जैन हवाला घोटाला कांड है जिसमें लगभग सभी राजनीतिक दलों के नेता फंसे हुए थे लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने डायरी को सबूत मानने से इंकार कर दिया और इस तरह से सारे नेता बच गए।

इस देश में हर स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है और न्यायपालिका भी इससे अछूती नहीं है। समय-समय पर विभिन्न न्यायधीशों ने अपनी इस पीड़ा का इजहार किया है।

वो चाहे वे किसी भी दल से जुड़े हों। अगर आज जनलोकपाल बिल पास हो जाए और केंद्रीय जांच एजेंसी को स्वायत्तता दे दी जाए तो आधे से अधिक लोग इस धंधे को सलाम कह देंगे क्योंकि वे इसे लाभ का धंधा मानते हैं और वे राजनीति में इसलिए आते हैं कि अपने अन्य कुकर्मों जैसे काले धन व हत्या, बलात्कार से संबंधित मुकदमे को छुपा सकें।

आजकल मीडिया में भी एक नया ट्रेंड आया है। महानगरों में, जमीनों की दलाली से एक नया वर्ग पैदा हो गया है जिसके पास काफी मात्रा में पैसा हो गया है और इस पैसे में ज्यादा मात्रा में काला धन है वो इस पैसे को सफेद करने के लिए मीडिया का सहारा ले रहा है औऱ गली-मुहल्ले में कुकुरमुत्ते की तरह से नए-नए मीडिया संस्थान खुल गए हैं।

ऐसे लोगों का मीडिया से कुछ लेना-देना नहीं है वे तो बस अपने काले धन को सफेद करने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं और मीडिया के डर व प्रभाव कहिए कि पुलिस भी उन पर हाथ डालने से डरती है। देश का दुर्भाग्य है ये।

मीडिया में स्थिति तो यहां तक आ गई है कि विज्ञापनों के चक्कर में मीडिया संस्थान अपने-आप को राजनीतिक दलों का पिछलग्गू बनाने में भी नहीं हिचकिचाते और इसमें उन्हें तनिक भी शर्म नहीं आती? पता नहीं देश कहां जा रहा है। चैनलों, समाचारपत्रों को देखने-पढ़ने के बाद आपको अंदाजा लगाते देर नहीं लगेगी कि संस्थान किस पार्टी का समर्थन करता है। देश की आजादी के समय मीडिया का योगदान अमूल्य है लेकिन आज के दौर में यह राजनीतिक दलों के हाथों का खिलौना बन चुका है।

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