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धर्मनिरपेक्षता की दोगली परिभाषा

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ये धर्मनिरपेक्षता क्या बला है?

हरेश कुमार

आय से अधिक संपत्ति का मामला जहां एक ओर मुलायम और मायावती का पीछा नहीं छोड़ रहा। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री, मायावती के खिलाफ तमाम तरह के आरोप आए हैं लोकायुक्त की जांच में वहीं मौलाना मुलायम वर्षों की मेहनत के बाद, अपने पुत्र को यूपी की गद्दी पर बिठाने पर कामयाब तो हो गए लेकिन बगैर कांग्रेस के समर्थन के उन योजनाओं को कैसे लागू किया जाएगा जिसकी घोषणा चुनाव के दौरान उनकी पार्टी ने किया था। क्योंकि सबको पता है कि उत्तर प्रदेश की वित्तीय हालात किस तरह की है।

पाठकों को याद होगा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपनी माता और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिख आतंकवादियों के द्वारा हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर पर सहार होकर लोकसभा में अभूतपूर्व विजय हासिल की थी, लेकिन अपने पांच साल के कार्यकाल के बाद, बोफोर्स घोटाले में कांग्रेस पार्टी और क्वात्रोच्चि (जो इटली का नागरिक था और गांधी परिवार के काफी नजदीका थी) की उच्च स्तर पर संलिप्तता की खबर आने से कांग्रेस और राजीव गांधी की मिस्टर क्लीन वाली छवि को गहरा धक्का लगा और राजीव गांधी ने अगले चुनाव में आने के लिए अगर अयोध्या स्थित, राम मंदिर का ताला खुलवा दिया औऱ दूसरी गलती की कट्टरपंथी मुस्लिमों के दबाव में आकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा शाहबानों मामले के फैसले को बदलना जिसमें मुस्लिम औरतों को जीवन-निर्वाह के लिए तलाक देने के बाद पूर्व पति द्वारा गुजारा भत्ता दिए जाने की बात थी।

राम विलास पासवान ने अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में मंत्री पद का जमकर दुरुपयोग किया था क्योंकि, वो मिली-जुली गठबंधन की सरकार थी और हर सांसद के वोटों का अपना महत्व था। गौरतलब है कि इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार एक वोट से गिर गई थी, तब कांग्रेस पार्टी के लोकसभा सांसद, गिरिधर गोमांग ने उड़ीसा के मुख्यमंत्री बनने के बाद संसद से अपना इस्तीफा नहीं दिया था और उन्होंने वाजपेयी सरकार के खिलाफ अपने मताधिकार को प्रयोग किया।

पासवान को तब उन्हें तब भारतीय जनता पार्टी सांप्रदायिक नहीं लग रही थी। वे अपने विरोधी यानि मायावती जिसे वे अपना राजनीतिक प्रतिद्वंदी मानते थे, उनकी इच्छा थी कि मायावती को भाजपा से बाहर कर दिया जाए, लेकिन भाजपा ने जब उनकी बात नहीं मानी तो वे बाहर आ गए। और यहां तक कि पाकिस्तान दौरे के दौरान रामविलास पासवान ने कहा कि उन्होंने जब गोधरा कांड हुआ तो सांप्रदायिक सरकार को अपना समर्थन देना बंद किर दिया। ये कैसी दोगलागिरी है।

पाठकों को बखूबी याद होगा कि ये वही रामविलास पासवान हैं जिन्होंने बिहार के चुनाव में कट्टर मुस्लिमों का वोट हासिल करने के लिए ओसामा बिन लादेन की हमशक्ल को पूरे बिहार में घूमाया और पार्टी के लिए वोट मांगा अब फैसला पाठकों के उपर है कि कौन सांप्रदायिक है और कौन नहीं।
राम विलास पासवान के रेल मंत्री रहते अजमेर के रेल बोर्ड में वैशाली के एक कॉलेज के प्रिंसिपल को सीबीआई ने, 8 करोड़ रुपयों के साथ रंगे हाथों पकड़ा था, वे महोदय 1 करोड़ रुपये देकर अजमेर रेलवे बोर्ड के प्रमुख बने थे। लेकिन अब तक पता नहीं चल सका कि उस केस का क्या हुआ।

पटना के महेंद्नू मुहल्ला स्थित, हरिजन छात्रावास में रामविलास पासवान के रेलमंत्री रहते नौकरियों के लिए, उनके चहेते दलालों के द्वारा बोली लगती थी और राजनीतिक लोगों को मालूम है कि ये सब ऐसे नहीं होता है। राजनीतिक जिंदगी की शुरुआत में जिस व्यक्ति के पास एक अदद साइकिल नहीं थी वो आज अरबों की संपत्ति का मालिक है और दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता का ठेकेदार भी।

आज मायावती चाहे जो कुछ कहे, वे गुजरात में जाकर भाजपा का प्रचार तक कर चुकी हैं, क्योंकि उन्हें तब भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में सरकार जो चलानी थी।
इस देश के सारे दल ऐसे ही हैं।

आज नीतीश कुमार, बिहार में लगातार दूसरी सफल पारी खेलने के बाद से, कथित तौर पर धर्मनिरपेक्ष राजनीति के सबसे अच्छे चेहरों में से एक हैं क्योंकि उन पर उतना दाग नहीं है, शायद राजनीति के माहिर लोग ही बता सकते हैं कि लालू के साथ इतने दिनों तक रहने के बाद वे चारा घोटाले में कैसे बेदाग रह गए?

कुछ ना कुछ बहुत कुछ गड़बड़ है। इसमें।

नीतीश कुमार, लालू यादव से अलग होने के बाद से समता पार्टी का गठन किया था और शुरुआती दौर में, चुनावों में उनकी ताकत मुख्य तौर पर, कुर्मी और कोयरी वोट बैंक रहा है। बाद में, लालू के कुशासन से तंग लोगों ने जिसमें कथित तौर पर, उच्च जातियों सहित तमाम महादलित जातियां के लोगों ने नीतीश कुमार का समर्थन किया।

इससे पहले, रामविलास पासवान बिहार से दलित वोट बैंकों पर अपना अधिकार समझते थे और अपने पूरे कुनबे को लालू की तरह राजनीति में ला दिया। रेल मंत्री व अन्य मंत्री पद का जमकर दुरुपयोग किया और आरोप तो यहांम तक है कि पैसे लेकर अपने समर्थकों की बहाली भी कराई। आज रामविलास पासवान राजनीति में कहां हैं?

नीतीश कुमार की किस्मत ने तब जोरदार छलांग लगाई थी जब वे अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठित एनडीए की सरकार में केंद्रीय रेल मंत्री बने और रेल मंत्री के तौर पर अपने क्षेत्र में कई योजनाओं को लागू करवाने में कामयाबी हासिल की थी और राष्ट्रीय राजनीति में लोगों को उनके व्यक्तित्व के बारे में पता चला।

इस देश में धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा मौलाना मुलायम, दिग्विजय सिंह, कम्युनिस्ट पार्टियां व कांग्रेस तय करती रही हैं, जो जरूरत के अनुसार, केरल और पश्चिम बंगाल में मुस्लिम लीग (देश विभाजन का समर्थन करने वाली पार्टी) तक से समर्थन लेती रही है।

हमने ऐसे-ऐसे लोगों को मुहब्बत और धर्मनिरपेक्षता का सबक देते देखा है जो हमेशा वोटों के लिए एक भाई को दूसरे भाई से लड़ाने की जुगत भिड़ाते रहते हैं और यहां तक कि ईद और होली के मौकों को भी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया करते हैं। ये वो दंगाई हैं जो शहर में शांति और अमन का पाढ़ पढ़ाते हैं। कहावत है ना जिनके घर शीशे के हों वो दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंका करते, लेकिन ऐसे लोग अपनी करनी से बाज नहीं आते, चाहे आप लाख समझा लो इन्हें। ये वो कुत्ते हैं जिनकी दुम सीधी नहीं होने वाली।

अब आते हैं नीतीश की धर्मनिरपेक्षता पर। अपने कार्यकाल में नीतीश कुमार ने भले ही विकास के कुछ कार्य किए हों इसमें कोई शक नहीं लेकिन लालू यादव के साथ हर धतकरम, गुनाहों शामिल में रहने वाले विधायकों-सांसदों को अपनी पार्टी में शामिल करके उन्होंने सबके पुराने गुनाहों पर एक ही झटके में पर्दा डाल दिया।

नीतीश कुमार के पास ऐसा डिटर्जेंट पाउडर है जिससे उनके साथ आने पर सभी के दामन पर लगे दाग धुल जाते हैं। इसका पेटेंट उन्हें तुरंत करा लेना चाहिए।

नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी की मदद से प्रदेश में सत्ता संभाली और अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए मुस्लिम कार्ड को बखूबी खेला। मुस्लिम बच्चों को वजीफा से लेकर, तमाम मदरसों को चाहे वे कागजों में ही क्यों ना हो, उसे वित्तीय मदद दी गई जबकि, वहीं पर संस्कृत स्कूलों की स्थिति बेहद दयनीय है, यहां तकि कि उनमें कार्यरत कर्मचारियों को कई-कई महीनों पर वेतन नहीं मिलता है।

विश्व की सबसे ज्यादा समृद्ध इस भाषा – संस्कृत के साथ ऐसा अन्याय और कहीं नहीं हो सकता। सिवाय इस देश के। क्योंकि संस्कृत को बढ़ावा देने का मतलब धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ काम करना है या संघ के एजेंडे को बढ़ावा देना है कांग्रेस और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों के अनुसार। संस्कृत कर्मियों को उस तरह की वित्तीय मदद नहीं मिलती है जिस तरह की मदद तमाम मदरसों को मिलते हैं नातीश की धर्मनिरपेक्ष सरकार के द्वारा। क्योंकि नीतीश को पता है कि संस्कृत चाहने/पढ़ने/जानने वाले तमाम मतदाता, भारतीय जनता पार्टी के वोटर हैं और उन्हें वे वोट देने से रहे, सो सत्ता में आते ही नीतीश ने धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा के अनुसार अपना पूरा खेल खेला। जय हो नीतीश और तुम्हारी धर्मनिरपेक्षता।

इस बीच, सत्ता में बने रहने के लिए भारतीय जनता पार्टी की बिहार इकाई के सुशील मोदी समर्थक नीतीश के हर कदम का जोरदार समर्थन करते हैं। क्योंकि उन्हें उपमुख्यमंत्री का पद जो हासिल है।
बिहार की स्थिति इस समय इतनी खराब है कि विपक्ष वहां है ही नहीं। और नीतीश की पार्टी के अभी इतने विधायक हैं कि वे अकेले सरकार चला सकते हैं, लेकिन शायद भारतीय मतदाताओं का रूख कब खेल बिगाड़ दे और नीतीश कुमार फिर से जमीन पर आ जायें कोई नहीं जानता। सो, हमारी तो यही अपील है कि दोगली धर्मनिरपेक्षता का खेल छोड़कर तमाम धर्मों के मानने वालों को समान तौर पर राज्य सरकार की ओर से वित्तीय मदद दी जाए।

चाहे भाजपा हो या कोई सभी पार्टियां शासन में आने के लिए जाति-संप्रदाय, क्षेत्रवाद का इस्तेमाल किया है और इन सबकी शुरुआत कांग्रेस पार्टी ने की है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है।

जब कांग्रेस की नीतियां कमजोर पड़ने लगीं तो बहुमत साबित करने के लिए कांग्रेस ने अपराधियों को पार्टी का टिकट देना शुरू किया।

इसकी शुरुआत तो पहले इस तरह से हुई कि क्षेत्र में कार्य करने वाले आपराधिक गिरोह राजनीतिक दलों का समर्थन करते थे और जीतने के बाद, उन्हें उस क्षेत्र के ठेके संबंधित क्षेत्र के विधायक और सांसदों की वजह से मिलते थे। बाद में, इन्होंने देखा कि जब वे अपने बाहुबल का उपयोग करके दूसरों को सांसद व विधायक बना सकते हैं तो खुद क्यों नहीं बन सकते हैं? और इस तरह से भारतीय राजनीति में आपराधियों के आगमन की शुरुआत हुई।

आज स्थिति इतनी खराब है कि शायद ही कोई राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल हो जो अपराधियों को टिकट ना देता हो। यह लोकतंत्र का काला/स्याह पक्ष है जिसमें राजनीतिक दलों को संख्या बल पूरा करना होता है। शासन-व्यवस्था में महती भागीदारी हेतु। और यही कारण है कि राजनीतिक दल हर उस व्यक्ति को टिकट देते हैं जिसमें जीतने की क्षमता हो। चाहे उस पर हत्या, बलात्कार, अपहरण से लेकर कितने भी संगीन अपराध क्यों ना हो?

इस पर, सभी पार्टियों के प्रवक्ता बड़ी बेशर्मी से कहते हैं कि मामला न्यायालय में विचाराधीन है और कोर्ट का जो भी निर्णय होगा, हम उसे मानेंगे। लेकिन पेंच यहीं से शुरू होता है। क्योंकि भारतीय न्याय-व्यवस्था की खामियों का लाभ ये अपराधी उठाते हैं और अपने खिलाफ हर सबूत को मिटा देते हैं चाहे इसके लिए इन माननीयों को कुछ भी क्यों ना करना पड़े?

भारत का इतिहास गवाह है कि भारत में कभी भी किसी बाहुबली जो विधायक या सांसद रह चुका हो उसे किसी गंभीर अपराध में सजा नहीं हुई है क्योंकि उसके खिलाफ सबूत कभी मिलते ही नहीं। सबूत देने की हिम्मत करने वाला, समय से पहले खुदा को प्यारा हो जाता है?

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