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हरेश कुमार
उसके भरोसे को बचपन में ही अपने लोगों ने इस कदर तोड़ा
कि वह फिर किसी पर विश्वास कर ना सकी।
पर, जब एक दिन सहते-सहते दर्द असह्य हो गया
तो आंसूओं के सैलाब में उसने सब कुछ अपने आप कह दिया।
अचानक उसके मुंह से निकली व्यथा को सुन कर यही निकला आखिर भरोसा करें तो किस पर आज के जमाने में।
जब अपने ही कलंकित करते हैं।
नादानी का फायदा उठाते हैं।
तो क्या?
समाज इसे ही कहते हैं और ये दुनिया ऐसे ही चलती है और चलती रहेगी।
कुछ तो बोलो?
आप सब खामोश क्यों हो?
अपने मुंह को खोलो और व्यक्त कर दो उन भावनाओं को जो अभी तक आपने अपने अंतर्मन में दबाए रखा है।
आखिर कब तक?
कहीं ऐसा ना हो कि एक दिन ये आंसू शोलों का रूप धारण कर ले और आपकी महकती-खिलती बगियां समय से पहले ही उजड़ जाये।।
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